रविवार, 3 अप्रैल 2011

बंधी मुठ्ठी आना

बंधी मुठ्ठी आना 



' करत -करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान , और रस्सी आवत-जावत के सिला पर पड़त निसान । ' यह उक्ति बहुत प्रसिद्ध है । लहलहाते वृक्ष और ये अबाध गति से प्रवहमान सरिताएं उपदेश दे रही हैं कि अपने कर्त्तव्य -पथ पर मुस्कुराते हुवे , अदम्य साहस के साथ बढ़ते जाओ । इस अपार संसार में कुछ भी तुम्हारा नहीं है । जन्म होते ही नवजात शिशु रुदन करते हुवे आकिंचन्य धर्म की शिक्षा देता है । वह रो-रो कर कहता है कि उसने भी अन्य के सदृश बहुत कुछ संजोया था , बहुत कुछ परिग्रह किया था , परन्तु वह सब-कुछ छोड़कर आ गया ।




 आज वह इस स्थिति में है कि तन पर एक धागा भी नहीं है । यद्यपि वह सभी कुछ वहीँ छोड़कर खाली  हाथ विदा हुवा था , पर अंतर्मन की आकांक्षा फिर भी शांत नहीं हुयी थी । उसी का फल है कि वह खाली हाथ ही आया , परन्तु फिर भी उसने मुट्ठियाँ बाँध ली है । आज आप इसकी बंधी हुयी मुट्ठियों को चाहते हुवे भी खोल नहीं पाओगे । आप खोलेगो तो वह पुन: बाँध लेगा । इसका कारण है उसकी आकांक्षाओं के प्रति आसक्ति । वह बड़ा होकर पूरे जीवन उनकी पूर्ति करेगा और अंत में यहीं छोड़कर चला जायेगा ।&&&&&&&&&&&&&




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें