बड़ा नहीं अपितु चाहिए बड़प्पन
आज मानव के मन में बड़ा बनने की एवं उच्चतम उच्च पद प्राप्त करने की है । परन्तु सफलता का अर्जन सभी को नहीं हो पाता । क्योंकि पुरुषार्थ का अनुकूल फल पुण्यवानों को ही प्राप्त हो पाता है , सभी को नहीं । दूसरी बात यह है कि बड़प्पन की चाह से बड़प्पन प्राप्त नहीं होता है । इसके लिए हमें गुण-गाम्भीर्य की आवश्यकता है । यदि हमारे में श्रेष्ठता होगी तो ज्येष्ठता तो स्वयमेव मिल जाएगी ।
आज मानव के मन में बड़ा बनने की एवं उच्चतम उच्च पद प्राप्त करने की है । परन्तु सफलता का अर्जन सभी को नहीं हो पाता । क्योंकि पुरुषार्थ का अनुकूल फल पुण्यवानों को ही प्राप्त हो पाता है , सभी को नहीं । दूसरी बात यह है कि बड़प्पन की चाह से बड़प्पन प्राप्त नहीं होता है । इसके लिए हमें गुण-गाम्भीर्य की आवश्यकता है । यदि हमारे में श्रेष्ठता होगी तो ज्येष्ठता तो स्वयमेव मिल जाएगी ।
अन्तरंग में गुण -पुष्प विकसित होंगे तो उनकी सुगन्धि स्वत: विकीर्ण हो जाएगी । महापुरुषों के जीवन-चरित्र का आकलन करने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने बड़ा बनना चाहा नहीं , किन्तु जंगल में चले जाने पर उनका गुण -गाम्भीर्य वहां भी लहरा उठा । वे जहाँ भी गये विजय-श्री का वरण करके ही वापिस आये । जिस तरह दाल को गलाकर , पीस कर और तदनुकूल आकार देकर उसे कड़ाही में पकाया जाता है तो तभी वह खाने का बड़ा बन पाता है । इसी प्रकार जो प्रतिकूलता, लांछन या आपत्तियों रूपी पत्थर की चोट खा-खाकर पिस जाता है तो वह चिन्तन रूपी कड़ाही के अंदर अनुभव रूपी तेल में पक जाता है । तभी वह बड़ा व्यक्ति एवं अनूठे व्यक्तित्व का धनी बन जाता है । इसके अभाव में बड़ा होना सुगन्धि विहीन पुष्प या जल शून्य सरिता की भांति है ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&
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