गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

ईर्ष्या की आग को शांत

ईर्ष्या की आग को शांत 


 यह  कुविचार है , जो दूसरे की उन्नति अथवा दूसरे के सुख से उत्पन्न होता है । ईर्ष्या वह आग है , जो सर्वप्रथम खुद को जलाती है। निश्चय ही मन एक समय में एक एक ही कार्य कर सकता है ।  जैसे आग में भौतिक पदार्थ जलकर भस्म हो जाते हैं । उसी प्रकार ईर्ष्या की आग में अच्छे गुण और अच्छे विचार जलकर भस्म हो जाते हैं । मानव ईर्ष्या से ग्रसित होने पर सत्कार्य नहीं कर सकता । ईर्ष्या के कारण बुद्धि का नाश हो जाता है । ईर्ष्या मन को दूषित कर देती है ।  ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों में ईर्ष्या उत्पन्न कर सकता है ।

ईर्ष्या स्वयं का और दूसरे का नाश करती है । ईर्ष्या की अग्नि विवेक रूपी जल से शांत होती है और विवेक ज्ञानियों की संगति से उत्पन्न होता है । ईर्ष्या एक तरह से रोग है और ईर्ष्यालु घृणा का पात्र नहीं अपितु दया का पात्र होता है । परोपकारी व सदाचारी व्यक्तियों का साथ ईर्ष्या का विनाश कर देता है । जब ईर्ष्यालु व्यक्ति देखता है कि किसी व्यक्ति ने दूसरों के हितार्थ इतना त्याग किया और इतना बड़ा उपकार किया तो उसके अंदर स्वयं ही विवेक जाग्रत होने लगता है और उसके अंदर का विवेक जल की भांति ईर्ष्या की आग को शांत कर देता है । *******

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