योगऋषि पतंजलि द्वारा कही गयी हर तकनीक अपने स्वरूप , प्रभाव एवं इनकी विधि-व्यवस्था से क्रमिक रूप से जुड़ी हुयी है , जैसे की प्राणायाम का सम्बन्ध रक ओर आसन से है ; तो दूसरी ओर प्रत्याहार से है . जो व्यक्ति शरीर से स्थिर एवं दृढ़ नहीं है , वह प्राणायाम की गहनता का स्पर्श नहीं कर सकता . इसी तरह जिसने प्राणायाम की प्रक्रिया के द्वारा नाड़ियों के मल का शोधन नहीं किया , चित्त के आवरण को क्षीण नहीं किया , वह प्रत्याहार के योग्य नहीं हो सकता .
प्रत्याहार के लिए मन का धारणा योग्य बन जाना जरूरी है ; क्योंकि ऐसा मन इन्द्रियों की शक्ति को स्वयं में पुनर्लीन करने में समर्थ है . इसी सत्य का संकेत स्पष्ट है _ प्राणायाम के प्रभाव मन धारणाओं के योग्य हो जाता है . मन धारणा के योग्य बन सके , यह काम आसान नहीं है . ऊपरी तल पर विचारों की अगणित लहरों से मन चंचल रहता है . थोड़ा गहरे में यादों व आग्रहों के ढ़ेर लगे रहते हैं . इनसे भी गहराई में संस्कारों व कर्म-राशि की परत हैं . ये सभी चित्त में आवरण बन छाये हुवे हैं . इनमें से बहुत सी चीजें प्रकृति में एक दूसरे से समान भी हैं और विरोधी भी . ऐसे में जब भी किसी उपयुक्त एवं औचित्यपूर्ण विचार , भावना एवं या छवि को धारण करने की कोशिश की जाती है , तो इन सबमें यदि एक हिस्सा उसका समर्थन करता है तो अनेक हिस्से इसके विरोधी हो जाते हैं . ऐसी स्थिति में विचार , भावना या छवि की धारणा का मन में टिक पाना कठिन और प्राय: असम्भव हो जाता है .
प्राणायाम की प्रक्रिया से उत्पन्न हुयी परिष्कृत स्थिति में यह अवरोध बहुत न्यून हो जाता है ; यहाँ तक कि चित्त इन्द्रियों की शक्तियों को पुन: वापिस बुलाने की सामर्थ्य पा लेता है . इसी की चर्चा महर्षि ने अपने अगले सूत्र में की है _ ' स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणाम प्रत्याहार: ' अर्थात अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर , जो चित्त के स्वरूप में तदाकार - सा हो जाता है , वह प्रत्याहार है . स्पष्टत: प्रत्याहार का तात्पर्य है कि इन्द्रियों की शक्तियों का स्रोत में वापिस लौट आना . यह मन की उस क्षमता की पुनर्स्थापना है , जिससे बाह्य विषय - जनित विक्षेपों से मुक्त हो इन्द्रियां वश में हो जाती हैं .
महर्षि के इस सूत्र में योग-साधना में आने वाली बाधाओं और उत्पन्न होने वाले विक्षेपों का समाधान है . जब तक बाहरी विक्षेपों से पीछा नहीं छूटता , न तो अंतर्यात्रा सम्भव है और न अन्तश्चेतना के गर्भ में प्रवेश . यह कुछ ऐसी बात हुयी जैसे कि कोई ध्यान कर रहा है , लेकिन उसका मोबाईल फोन भी उसी कक्ष में है . अब वह बार-बार बजेगा , तो ऐसी स्थति में ध्यान करने के लिए उसे वहां से उसे हटाना होगा . यह तो बस एक उदाहण है . हमारे अपने आस-पास ऐसी कितनी लाखों चीजें चल रही हैं . जब भी हम साधना करने की कोशिश करते हैं , मन का एक हिस्सा एक काम करने की सलाह देता है , तो दूसरा हिस्सा उसी समय किसी दूसरे काम को जरूरी बताने लगता है .
मन का यह भटकाव तभी रुकना सम्भव है जब मन का उन संस्कारों , विचारों एवं वादों से पीछा छूटे , जो कि इन्द्रियों के विभिन्न विषयों में रस ले रहे हैं . यह रसासक्ति किसी प्रतिज्ञा या संकल्प से नहीं जाती . यह तो बस मन के परिष्कृत होने पर जाती है . वह जाती है मन में भगवान के प्रति प्रेम एवं भक्ति के उत्पन्न होने से . ऐसा न हो सका तो बचपन हो या जवानी अथवा बुढ़ापा , बात एक ही बनी रहती है . कभी तो मन में स्वाद ललचाता है , तो कभी किसी रूप में उलझता है , तो उसे कोई गंध खींचती है तो कभी उसे किसी के शब्द आकर्षित करते हैं . इस खींच - तान भरी स्थिति में न तो साधना सम्भव है और न किसी उच्चस्तरीय सत्य की धारणा .
यह तो तभी सम्भव है , जब इन विक्षेपों से पीछा छूटे . इसके लिए मन को ' प्रत्याहार ' की क्षमता पानी होगी . गुरुदेव के शब्दों में कि कोई राज्यपाल किसी प्रदेश में तभी तक राज्यपाल रह सकता है , जब तक उसे राष्ट्रपति का विश्वास प्राप्त है . यदि राष्ट्रपति अपनी शक्ति उससे छीन ले तो वह सामान्य व्यक्ति से अधिक और कुछ भी नहीं . यही स्थिति मन और इन्द्रियों की है . मन की शक्तियों से ही इन्द्रियां शक्ति-सम्पन्न हो विक्षेप उत्पन्न करती हैं . यदि मन अपनी शक्ति को वापिस लौटा दे तो फिर इनके विक्षेप निरर्थक हो जाते हैं ; लेकिन यह तभी सम्भव है , जब मन का रस , मन की आसक्ति थोड़ी उन्नत , उच्स्तरीय एवं ईश्वरीय हो . यह कहने - समझने से नहीं होता . इसके लिए अनुभव आवश्यक है . तप एवं योग के प्रयोग से मन जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है , वैसे-वैसे उसका इन्द्रियों से एवं इन्द्रिय - विषयों से रस जाता रहता है . भगवान के स्मरण एवं भक्ति से भी यह स्थिति बनती है . जीवन के कटु - कठिन अनुभव भी यदा-कदा अन्तर्विवेक को जगा देते हैं . अनुभव बता देते हैं कि संसार एवं संसारिकता में अटकना - भटकना व्यर्थ है . इसमें ठोकरों , चोटों के सिवाय और कुछ भी नहीं . जीवन की सच्चाई यही है कि इन्द्रिय - विषयों को कोई अपनी मर्जी , संकल्प या प्रतिज्ञा से नहीं छोड़ पाता . मन की अवस्था के बदलते ही ये स्वत: छूट जाते हैं .
इन बाहरी विक्षेपों का इस तरह त्याग हो जाने पर योगसाधक स्वयं प्रत्याहार के योग्य हो जाता है . अब बाहर के संसार में उसे रस नहीं रह जाता . तब वह हजारों दिशाओं एवं हजारों चीजों के पीछे भागता नहीं है . अपने प्रिय परमेश्वर के स्वरूप में , साथ ही अपने आत्मस्वरूप में उसकी सारी रसासक्ति केन्द्रित हो जाती है . स्वयं में लय होने की आकांक्षा अन्य सारी आकांक्षाओं का स्थान ले लेती है . फिर सारी भटकन - अटकन एवं उलझन के फंदे स्वत: ही टूट जाते हैं .*****
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