शनिवार, 14 सितंबर 2013

नये मानव का भारत में जन्म

नये मानव का भारत में जन्म 



संस्कृति वह तत्त्व है , जिससे व्यक्ति , समाज और राष्ट्र को अपने अस्तित्व को सुरक्षित , संरक्षित एवं विकसित करने क नया आधार मिलता है . संस्कृति वह मूल्य है , जो हम सबको आपस में एकदूसरे से सहयोग , सहकार एवं संवेदनशील सम्बन्धों की डोरी से बांधे रखती है . अपनी संस्कृति मूल्य परक है , जो हमें मानवता की भाषा सिखाती  है तथा मानव को विकसित कर उसके अंदर ऋषि - बोध देती है . वह आध्यत्मिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती है , जिससे मानव परमात्मा के संग संग साहचर्य से तादात्म्य स्थापित  कर जीवन में सत्य एवं सौन्दर्य अभिव्यक्त कर सके , परन्तु विडम्बना है कि वर्तमान में इस नव उदारवादी भूमंडलीकरण से जो बाजार मूल्य पैदा हुवा है , उससे मानव सौदे की वस्तु बन गया है .

भारतीय का केंद्र वह मानव है , जिसके अंदर ईश्वरीय अंश विद्यमान है . जिसके अंदर दूसरों के सुख-दुःख को समझने एवं अनुभव करने की क्षमता होती है . यह विवेक ही है , जो उचित-अनुचित के बीच भेद कर सके और हमारे विरोध के उपरांत साहस के साथ उचित को अपना सके . इस संस्कृति का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का निर्माण करना और नव- निर्मित मानव को सतत विकसित कर ऋषियों के समान बना देना है , जो सांस्कृतिक तत्त्वों को अपनी प्रबल प्रेरणा - तपस्या से पोषित करता है . तात्पर्य यह है  कि संस्कृति एक नया मानव गढ़ती है और उसे रिशित्व प्रदान करती है . इस प्रकार ऋषि संस्कृति को अपने प्राणों से सींच कर अक्षुण बनाये रखता है . इसमें मानव के विकास के साथ समाज एवं राष्ट्र के विकास की समस्त संभावनाएं सन्निहित होती हैं .

संस्कृति व्यक्ति , समाज , राष्ट्र और विश्व के सतत विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है . सांस्कृतिक मूल्य इनके बीच के सम्बन्धों की सदा समीक्षा करते हैं , ताकि मनुष्य जिसे समाज एवं राष्ट्र के विकास की इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गयी है , उसका वह समुचित निर्वहण कर सके तथा समाज व राष्ट्र उसकी यथोचित व्यवस्था कर सके . सभी एक दूसरे के साथ बेहतर ताल - मेल बनाये रख सकें तथा आपसी सम्बन्धों में कहीं कोई व्यतिक्रम न आ सके . केवल इतना ही नहीं कि व्यक्ति राष्ट्र और समाज के साथ सम्बन्ध बनाये रख सके ; अपितु वह प्रकृति के सभी घटकों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार कर सके .

संस्कृति का एक और तत्त्व आध्यात्मिक मूल्य तो इस सबका मूल है .  जो यह बताता है कि परोक्ष एवं प्रत्यक्ष सबी रूपों में जुड़ने और इनको ऊर्जान्वित करने वाले उस परम तत्त्व परमात्मा से कैसे ताल - मेल स्थापित करें ; क्योंकि परमात्मा ही हम सबका मूल है और वह हमारे अस्तित्व का केंद्र है . यह हम सभी के अंतरतम केंद्र में स्थित है . इसके बिना तो सृष्टि की ही कल्पना सम्भव नहीं है और साथ में प्रकृति का भी अस्तित्व भी सम्भव नहीं है .

भारतीय संस्कृति जीवन के सभी आयामों एवं सभी अंगों समान ढ़ंग से विकसित एवं पोषित करने की बहुत अच्छी व्यवस्था देती है और इस व्यवस्था को क्रियान्वित करने की महत्त्वपूर्ण स्थिति मानव के हाथों में ही होती है .ऐसा मानव जिसके अंदर विवेक हो , संवेदनशीलता  हो . तथा वह जीवनमूल्यों को स्वयं में एवं समाज में क्रियान्वित करने का अपार साहस एवं समझ हो . परन्तु विडम्बना ही कहें कि कि सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक ही क्षुद्र एवं नहित स्वार्थपरता एवं अहंकार के कारण अपने सबसे बड़े शत्रु बन गये हैं . जिनके सशक्त कंधों पर यह भार सौंपा गया था , वह आज इतना कमजोर एवं दुर्बल हो गया है कि उससे यह भार सम्भाला ही नहीं जाता है और यही कारण है कि भारतीय संस्कृति की रगों में अपसंस्कृति का विष तेजी से फैलने लगा है तथा मूल्यपरक हमारी संस्कृति अचेत एवं मूर्च्छा की अवस्था में आकुल-व्याकुल पड़ी है .

सांस्कृतिक मूल्य छिन्न - भिन्न पड़े हैं तथा अपसंस्कृति इसका भरपूर लाभ उठा रही है . इसके कारणों में एक है _ हमारे देश में नव उदारवादी भूमंडलीकरण का उदय होना . इसे हो सकता है कि देश को कई रूपों में अनेक लाभ हों ; परन्तु इससे जो क्षति हुयी है , वह है हमारी संस्कृति को उद्योग एवं व्यवसायिक बन देना . संस्कृति में मानव - जीवन को गढ़ने हेतु मूल्य निर्धारित होते हैं  , परन्तु उद्योग या व्यवसाय में वस्तु के लाभ एवं हानि पर अधिक बल दिया जाता है . इस उदारवादी भूमंडलीकरण चीजों को खुली छूट मिल गयी है , जिससे जीवन- मूल्य नष्ट- प्राय: हो गये . परिणामत: इलेक्ट्रोनिक मीडिया , प्रिंट मीडिया , विदेशी पूंजी का निवेश तथा निजी पूंजी का खुलकर प्रयोग होने लगा है . इस सन्दर्भ में आस्ट्रेलियाई अर्थशास्त्री मैनफ्रेड बी स्टिंगर ने अपनी पुस्तक ' ग्लोबलाइजेशन _ ए वेरी शार्ट इंट्रोडकशन ' में उल्लेख किया है कि निजी पूंजी का एकमात्र उद्देश्य अधिकतम लाभ उपार्जित करना है . इसके लिए वह अपने उत्पादों की लागत घटाने तथा मांग बढ़ाने का अथक प्रयास करता है . मीडिया अपने प्रसारित कार्यक्रमों तथा सामग्रियों की मांग बढ़ाने के लिए दर्शकों श्रोताओं और पाठकों के मन में ऐसी बात डाल देता है कि , जिसका प्रभाव बड़ा गहरा होता है .

इस सन्दर्भ में अमेरिका के समाजविज्ञानी बेंजामिन बार - बार कहते हैं कि संस्कृति में एक मूल्य होता है कि कहाँ , कब और किसे , किस रूप में प्रस्तुत करना है . इससे देश , काल और परिस्थिति के अनुरूप व्यवहार करने की बात कही जाती है . आज मनोरंजन के नाम पर जिस अश्लीलता का पाठ पढ़ाया जाता है , उसका प्रभाव वर्तमान समाज में स्पष्ट दिखाई दे रहा है . आज के नीति निर्धारक सुनियोजित षड्यंत्रों के अनुसार अपनी बात मनवा लेने का मनोवैज्ञानिक हथकंडा अपनाते हैं . वे डराकर और लोभ पैदा कर अपने प्रस्तुतीकरण करने में सफल हैं . उनका उद्देश्य है _ तात्कालिक लाभ कमाना , चाहे इसके लिए किसी को , किसी रूप में , कितनी भी हानि उठानी पड़े , कोई अंतर नहीं पड़ता है . अत: आज की अपसंस्कृति का उद्देश्य है _ ' भोग भोगो , अर्थोपार्जन करो , चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े .

भारतीय संस्कृति कहती है _ ' तेन त्यक्तेन भुंजीथा: ' अर्थात त्याग के साथ भोग होना चाहिए . अधुना तो त्याग की बात ही नहीं है , केवल भोग ही भोग है और इस भोग ने मनुष्य को एकदम खोखला बना दिया है और जीवनमूल्य छीन लिए गये हैं , परन्तु जहाँ त्याग होगा और एक दूसरे के प्रति सहयोग एवं सहकार की भावना होगी ; संवेदनशीलता अर्थात दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने की क्षमता होगी , वहीँ मानव-संस्कृति का विकास होगा . इसी से मानवीय मूल्यों की स्थापना होगी . अत: मानवीय गुणों का विकास होगा तथा भविष्य में नए मानव के जन्म का पथ प्रशस्त होगा . सम्प्रति इसी प्रकार की संस्कृति की ही आवश्यकता है .*******************

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