रविवार, 15 सितंबर 2013

द्रवै स्रवे पुलकै नहीं , तुलसी सुमिरत नाम

प्रभु पर भरोसा 


प्रभु पर और स्वयं अपने पर विश्वास व भरोसा रखना चाहिए . विश्वास ही वह माध्यम है , जिससे सकारात्मक सोच उत्पन्न होती है . विश्वास ही प्रगति का सूचक और ध्येय की ओर ले जाने वाला है . सकारात्मक सोच मनुष्य को आस्था से जोड़ती है और यह आस्था ही उसे स्वयं से जोड़ती है . विश्वास ही फलदायक होता है .

प्रभु पर भरोसा उसके गुणों के कारण ही किया जाता है . इसी कारण उसकी उपासना और स्तुति भी की जाती है . वह प्रभु ही श्रेष्ठ मित्र के समान हित साधक तथा प्रिय है . वह सबसे अधिक प्रेम करने योग्य है . वह निरंतर व्यापक है . वही जानने योग्य और हृदयरूपी वेदी में ध्यान करने योग्य है . वह सर्वाधार एवं प्रकाशस्वरूप है . भक्तों के भावावेश की स्वर-लहरी में जब फूटकर बाहर प्रकट होती है , तो वे साम बन जाती हैं . उपासना और संगीत का गहरा सम्बन्ध है , अर्थात जो मनोदशा एक गायक की संगीत के गाने के समय होती है , तो ठीक वही स्थिति भक्त की भी उपासना में प्रभु-स्मरण के समय होनी चाहिए .

गोस्वामी तुलसीदास ने उपासक की दशा का चित्रण अनुपम रूप में किया है _
                      ' हिय फाटउ फूटऊ नयन , जरउ सो तन केहि काम .
                      ' द्रवै स्रवे पुलकै नहीं   , तुलसी सुमिरत नाम           .. '



वह ह्रदय फट जाये जो प्रभु का नाम लेते ही द्रवित नहीं होता . वे आँखे फूट जाएँ जो भगवान को याद करने पर प्रेम के झरने नहीं बहातीं . वह शरीर जो उसका नाम लेते ही पुलकित नहीं होता उसका भस्म हो जाना ही उचित है .

प्रभु का शुद्ध स्वरूप समझे बिना मनुष्य में विचार और आचार की पवित्रता नहीं आ सकती . स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रभु-भक्ति संसार में प्राय: होती है , किन्तु प्रभु के स्वरूप को समझकर अपने कर्त्तव्य का निष्ठा से पालन वही कर सकता है , जो संसार में सर्वत्र अनुभव करता है . और यह अनुभव भरोसे एवं विश्वास के आधार पर ही हो सकता है .&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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