शनिवार, 14 सितंबर 2013

यज्ञ का सकारात्मक प्रभाव

यज्ञ का सकारात्मक प्रभाव 


सूक्ष्मविज्ञान पर आधारित यज्ञ की प्रभावोत्पादकता हविर्द्रव्यों , समिधाओं , मंत्रोच्चार , प्रयोक्ता के व्यक्तित्व  एवं समय - विशेष पर आधारित होती है . इन सभी का समुचित संतुलन बन जाने पर यज्ञ में एक विशिष्ट प्रकार का चुम्बकीय प्रभाव एवं प्रवाह उत्पन्न होता है . यह यजनकर्त्ता के साथ-साथ सम्पूर्ण वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव प्रस्तुत करता है .

प्राय: यज्ञ करने पर यज्ञीय धूम्र नीचे से ऊपर की ओर चलता है . यदि वायु स्थिर हो , हवा न चल रही हो तो इस धूएँ का बहाव सीधा एवं नियंत्रित होता है . वायु मिश्रित धूएँ में विद्युत् आविष्ट कणों तथा आयनों का एक कोलाईडल घोल होने के कारण इसके सीधे ऊपर की ओर चलने के वही प्रभाव होंगे ; जो की एक विद्युत् - प्रवाह के होते हैं . जिस तरह से किसी भी विद्युतीय - प्रवाह से चुम्बकीय क्षेत्र बनता है , उसी तरह से यज्ञकुंड से उठने वाले धूएँ के चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है और यह यजनकर्त्ता को सीधे प्रभावित करता है .

यज्ञ - विज्ञान की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक है की हवन-कुंड से उठने वाली यज्ञ - शिखा का विस्तृत भौतिक विश्लेषण किया जाये . इससे स्पष्ट हो जायेगा कि यज्ञ-कुंड से काफी मात्रा में विद्युत् चुम्बकीय तरंगे उठती हैं और ये माइक्रोवेव या अल्ट्राशोर्टवेव स्तर की होती हैं . इन तरंगों की प्रगाढ़ता यज्ञ-कुंड के आस-पास के वातावरण को ठंडा करने  से और बढ़ जाती हैं . हवन कुंड के चारों ओर एक नाली बनाकर उसमें जल भरने से तथा यज्ञ शाला के निकट अनेक जल भरे कलश स्थापित करने को इसी उद्देश्य की पूर्ति के रूप में समझा जा सकता है .

सस्वर मंत्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि - कम्पनों से यज्ञ-शिखा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जिसके कारण उससे निकलने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगे प्रभावित होती हैं . इस तरह से रेडियो - प्रसारण जैसा एक तन्त्र भौतिकी के आधार पर कार्य करता हुवा देखा जा सकता है . हवन-कुंड विशेष धातुओं , जैसे चांदी या ताम्बे का बनाकर इन विद्युत् तरंगों की आवृत्ति तथा आवेग को नियंत्रित किया जा सकता है . साथ ही मंत्रोच्चार से स्वयं यजन कर्त्ता को विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का केंद्र बनते हुवे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है . मंत्रोच्चार करने वाले व्यक्ति की सम्पूर्ण काया शरीर में उठने वाली यांत्रिक कम्पनों से झंकृत होने लगती है . शरीर का पत्येक कोश-सेल एक इलेक्ट्रिक कैपेसिटर _ विद्युत् संधारित है . सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता बेस्ट एंड टेलर के अनुसार इसकी विद्युत् संधारित क्षमता _ इलेक्ट्रिक कैपेसिटेंस लगभग एक माइक्रोफेड प्रतिवर्ग सेंटीमीटर आंकी गयी है .

सामान्यत: रेडियो तथा टेलीविजन आदि यंत्रों में लगने वाले विद्युत् संधारित्रों की क्षमता शरीर को कोशकीय क्षमताओं से कहीं कम होती है . किसी भी मानक से इस क्षमता को बहुत विस्मयकारी कहा जा सकता है . प्राय: व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसके शरीर में इतनी भरी विद्युत्शक्ति को धारण करने की क्षमता है . 


जब शरीर का प्रत्येक अवयव _ कोश एवं ऊतक ध्वनि - कम्पनों से झंकृत होने लगता है ; तो भौतिकों के शब्दों में ये कम्पन एक विद्युत् संधारित्र के कम्पन मने जा सकते हैं तथा इन कम्पनों से विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का बनना अवश्यम्भावी है . यही वैद्युतीय चुम्बकीय तरंगें हवनकुंड के आस-पास बैठे हुवे यज्ञ - कर्त्ताओं को सीधे भी प्रभावित करेंगी तथा परावर्तित होकर भी . इन तरंगों का परावर्तन इसलिए होना सम्भव है , क्योंकि यज्ञीय अग्नि - शिखा विद्युत् आवेशधारी आयनों तथा कणों का एक समूह है . इस समूह से विद्युत् चुम्बकीय तरंगें परावर्तित होकर मंत्रोच्चार करने वाले व्यक्ति तथा अन्य यजनकर्ताओं पर पड़ना वैसे ही समझा जा सकता है ; जैसे शार्टवेव रेडियो ट्रांसमीटर से चलने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगें पृथ्वी के वायुमंडल आयस्नोफीयर परत से टकराकर वापिस आती हैं और पृथ्वी की गोल स्थ पर दूर - दूर तक फ़ैल जाती है . इस प्रक्रिया में अग्निशिखा को एक प्रबल एम्प्लीफायर या प्रवर्तक के रूप में माना जा सकता है , जिसमें विद्युत् का स्रोत विद्युत् लाइन या सेल नहीं , वरन यज्ञीय ऊर्जा _ अग्निशिखा है .

यज्ञ का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर नहीं ; मन और अन्तश्चेतना पर भी पड़ता है .  इसका स्थूल रूप यज्ञोपैथी के रूप में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है . यज्ञोपैथी में स्थूल चुम्बकों का प्रयोग तो नहीं होता ; पर यज्ञ - प्रक्रिया के फलस्वरूप चुम्बकीय क्षेत्र और प्रबल विद्युत् तरंगें अवश्य बनती हैं . यज्ञीय धूम्र में ऋण आवेशग्रस्त कणों का होना रसायनशास्त्र के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है . ये कण नीचे से ऊपर की ओर चलते हैं ओर भौतिकी के प्रचलित नियमों के अनुसर धुंए की इस प्रवाह - प्रक्रिया को ऊपर से नीचे की ओर चलने वाले एक विद्युत् करेंट के समतुल्य समझा जा सकता है . यह करेंट जो विद्युत् - क्षेत्र बनाएगा , उसका उत्तरी ध्रुव यज्ञ - कुंड के उत्तर की ओर तथा दक्षिणी ध्रुव यज्ञकुंड के दक्षिण की ओर होगा . यज्ञ से उत्पन्न होने वाला यह चुम्बकीय क्षेत्र पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की काट नहीं करेगा , वरन दोनों जुड़कर एक सशक्त चुम्बक जैसा प्रभाव डालेंगे .


क्योंकि यज्ञ - धूम्र यज्ञशाला के समूचे वातावरण में फ़ैल जाता है , इसलिए यह चुम्बकीय क्षेत्र यजन कर्त्ता को समान रूप से प्रभावित करता है . प्रचलित चुम्बक चिकित्सा में प्रयोग किए जाने वाले बड़े-बड़े चुम्बक , जो मात्र शरीर के कुछ ही स्थानों या भागों पर प्रभाव डालते हैं ; इसकी अपेक्षा यज्ञ-धूम्र के छोटे-छोटे चुम्बकीय प्रभावधारी कण सूक्ष्म होने के कारण कहीं अधिक लाभकारी होते हैं . यज्ञ चिकित्सा की प्रभावोत्पादकता का एक यह भी रहस्य है .

वास्तव में हमारी पुरातन वैदिक यज्ञ - पद्धति पूर्णतया विज्ञान- सम्मत है . पूर्व समय में हर घर परिवार में नित्य यज्ञ होता था और सभी निरोग रहते थे . यज्ञ के माध्यम से सभी संस्कार होते थे और इसी से निखर कर मनुष्य दैविक गुणों को धारण करता था . यज्ञ से साधना , संस्कार , तप आदि का श्रीगणेश होता है . यज्ञ मात्र संस्कार ही नहीं , अपितु साधना की सतत प्रक्रिया है .&&&&&&&&&&




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