वैदिक धर्म का कर्म- फल सिद्धांत पूर्णरूपेण स्पष्ट है . प्रत्येक जीव को अपने द्वारा किए गए सभी शुभ - अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है . ' सत्यार्थ प्रकाश ' के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर चर्चा करते हुवे महर्षि दयानन्द ने लिखा है _
" प्रश्न _ परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए या नहीं ?
उत्तर _ करनी चाहिए .
प्रश्न _ क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़ , स्तुति - प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा ?
उत्तर _ नहीं .
प्रश्न _ तो फिर स्तुति - प्रार्थना क्यों करना ?
उत्तर _ उनके करने का फल अन्य ही है .
प्रश्न _ क्या है ?
उत्तर _ स्तुति से ईश्वर में प्रीति , उसके गुण - कर्म - स्वभाव से अपने गुण - कर्म -स्वभाव का सुधारना , प्रार्थना से निरभिमानता , उत्साह और सहाय का मिलना , उपासना से परब्रह्म का मिलना और उसका साक्षात्कार होना . "
अपने अन्य ग्रन्थ ' संस्कार-विधि ' के गृहस्थाश्रम - प्रकरण में कर्म-फल सिद्धांत को स्पष्ट करते हुवे महर्षि दयानन्द ' मनुस्मृति ' को प्रस्तुत करते हुवे कहते हैं _ ' मनुष्य निश्चय करके जाने कि इस संसार में जैसे गाय की सेवा का फल आदि शीघ्र नहीं होता है . वैसे ही कए गये अधर्म का फल भी शीघ्र नहीं होता , किन्तु धीरे - धीरे अधर्म कर्त्ता के सुखों को रोकता हुवा सुख के मूलों को काट देता है , पश्चात अधर्मी दुःख ही दुःख भोगता है .
यदि अधर्म का फल कर्त्ता की विद्यमानता में न हो तो , पुत्रों और पौत्रों के समय में न हो तो ; पर फिर भी नातियो के समय में अवश्य प्राप्त होता है . किन्तु यह कभी नहीं हो सकता कि कर्त्ता का किया हुवा कर्म निष्फल होवे . '
ऋषिवर के कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है . दुष्कर्मों के फल से बचने या उनके क्षमा होने का का कहीं उल्लेख या संकेत नहीं है . महर्षि द्वारा प्रतिपादित कर्म - फल व्यवस्था वेद पर आधारित है .
हम जो भी कर्म करते हैं , उनका फल हमें अवश्य ही मिलेगा . इसमें कोई कमी नहीं होगी . क्योंकि ईश्वरीय व्यवस्था में कोई दोष नहीं है . कोई भी हमें कर्म-फल भोगने से नहीं बचा सकता . वहां किसी कि भी सिफारिश नहीं चलती . न ही किसी दोस्त , मित्र , बन्धु और सम्बन्धी के की कमाई के सहारे हम कोई पुण्य- फल प्राप्त कर सकते हैं . हमारे कर्मों से भरा पात्र वैसे ही सुरक्षित रहता है , जैसे जो कोई कुछ पकाता है , वही खाता है , अर्थात जो भले-बुरे कर्म मनुष्य करता है , वही उसके आगे आते हैं .
जैसे बछड़ा सहस्रों गायों में भी अपनी माता को पहचान कर उसी के पास जाता है , उसी प्रकार मनुष्य जो भी कर्म करता है , वह भी उसका पीछा करता है . अर्थात मनुष्य को अपने किए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है . एक नीतिकार ने इस सम्बन्ध में कहा है _
' अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं .
न क्षीयन्ते अस्य कर्माणि कल्पकोटि शतै: अपि .. '
अपने द्वारा किये गये शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है . बिना भोगे हुवे तो किसी कर्म का फल शत कोटि वर्षों में भी क्षीण नहीं होता . अर्थात फल भोगे बिना पीछा नहीं छूटता .
बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय बात बिलकुल ही सार्थक है . महाकवि तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से कहा है _ ' कर्मप्रधान विश्व रचि राखा . जो जस करहि , सो तस फल चाखा .. ' मनुष्य परमात्मा की न्याय-व्यवस्था के अधीन है . कोई व्यक्ति ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता जो यह सोचता हो कि मुझे मेरे सत्कर्मों का फल न भी मिले तो कोई बात नहीं . इसके विपरीत वह आश्वस्त है कि सुकर्मों का फल तो अवश्य ही मिलेगा ही . परन्तु एक विचित्र बात है कि बहुत से स्वाध्यायशील व्यक्ति भी अपने हीन कर्मों से बचने के लिए इसका समाधान शास्त्रों एवं ऋषि- मुनियों के वचनों में खोजते हैं .
पापों के क्षमा होने वाली बात वैदिक सिद्धांतों के प्रतिकूल है . सामान्यत: मनुष्य पुण्य कर्मों का फल प्राप्त करने की इच्छा करते हैं . परन्तु पुण्य कर्म करने की इच्छा नहीं करते . दूसरी ओर वे पाप कर्म का फल उन्हें न मिले ऐसा वे चाहते हैं , पर पाप- कर्म यत्नपूर्वक करते हैं _
' यथा फलं इच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवा: .
न पापफलं इच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत: .. '
हमें अपने जीवन में व्यवस्थित कर्म-फल को समझना चाहिए . तभी ' स्वस्ति पंथानुचरेम ' , अग्नेनय सुपथा ' और ' विश्वानि दुरितानि परासुव ' आदि वेद - वचनों की सार्थकता रह सकती है . वास्तव में सत्य को स्वीकार करने के लिए भी आत्मिक बल की , आत्म- विश्वास एवं प्रभु की न्याय - व्यवस्था में आस्था की आवश्यकता होती है . प्रभु की कर्म - फल व्यवस्था अटल है . बिना फल भोगे हुवे शुभ - अशुभ कर्मों का क्षय नहीं होता और यही वेद का सिद्धांत है .&&&&&&&
' अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं .
न क्षीयन्ते अस्य कर्माणि कल्पकोटि शतै: अपि .. '
अपने द्वारा किये गये शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है . बिना भोगे हुवे तो किसी कर्म का फल शत कोटि वर्षों में भी क्षीण नहीं होता . अर्थात फल भोगे बिना पीछा नहीं छूटता .
बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय बात बिलकुल ही सार्थक है . महाकवि तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से कहा है _ ' कर्मप्रधान विश्व रचि राखा . जो जस करहि , सो तस फल चाखा .. ' मनुष्य परमात्मा की न्याय-व्यवस्था के अधीन है . कोई व्यक्ति ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता जो यह सोचता हो कि मुझे मेरे सत्कर्मों का फल न भी मिले तो कोई बात नहीं . इसके विपरीत वह आश्वस्त है कि सुकर्मों का फल तो अवश्य ही मिलेगा ही . परन्तु एक विचित्र बात है कि बहुत से स्वाध्यायशील व्यक्ति भी अपने हीन कर्मों से बचने के लिए इसका समाधान शास्त्रों एवं ऋषि- मुनियों के वचनों में खोजते हैं .
पापों के क्षमा होने वाली बात वैदिक सिद्धांतों के प्रतिकूल है . सामान्यत: मनुष्य पुण्य कर्मों का फल प्राप्त करने की इच्छा करते हैं . परन्तु पुण्य कर्म करने की इच्छा नहीं करते . दूसरी ओर वे पाप कर्म का फल उन्हें न मिले ऐसा वे चाहते हैं , पर पाप- कर्म यत्नपूर्वक करते हैं _
' यथा फलं इच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवा: .
न पापफलं इच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत: .. '
हमें अपने जीवन में व्यवस्थित कर्म-फल को समझना चाहिए . तभी ' स्वस्ति पंथानुचरेम ' , अग्नेनय सुपथा ' और ' विश्वानि दुरितानि परासुव ' आदि वेद - वचनों की सार्थकता रह सकती है . वास्तव में सत्य को स्वीकार करने के लिए भी आत्मिक बल की , आत्म- विश्वास एवं प्रभु की न्याय - व्यवस्था में आस्था की आवश्यकता होती है . प्रभु की कर्म - फल व्यवस्था अटल है . बिना फल भोगे हुवे शुभ - अशुभ कर्मों का क्षय नहीं होता और यही वेद का सिद्धांत है .&&&&&&&
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