चिन्तन और कर्म से शुद्ध बन कर ही बुद्धत्व की प्राप्ति
कर्म का सम्बन्ध कामना से होता है . जो व्यक्ति सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वही उसको प्राप्त कर लेता है . समस्त अन्नादि पदार्थों का दाता वह प्रभु ही है , साथ ही उसी आनन्दस्वरूप से ही आनन्द का प्रसाद मिल सकता है . वह प्रभु जिस भक्त को वरणीय समझता है , उसे वह उस भक्त के ह्रदय में दर्शन देता है .
कर्म का सम्बन्ध कामना से होता है . जो व्यक्ति सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वही उसको प्राप्त कर लेता है . समस्त अन्नादि पदार्थों का दाता वह प्रभु ही है , साथ ही उसी आनन्दस्वरूप से ही आनन्द का प्रसाद मिल सकता है . वह प्रभु जिस भक्त को वरणीय समझता है , उसे वह उस भक्त के ह्रदय में दर्शन देता है .
जाति आयु और भोग का निश्चय कर्मानुसार होता है _ ' सतिमूले तदविपाको जात्यायुर्भोगा : ' . कर्म का फल प्रभु की व्यवस्था से मिलता है . दो _ जीव और ईश्वर चेतनता एवं पालन आदि गुणों में समान हैं . ये दोनों प्रकृतिरूपी वृक्ष पर बैठे हुवे हैं . इनमें से एक जीव उस वृक्ष के स्वादु फलों को भोगता है और दूसरा ईश्वर न खाता हुवा फल की व्यवस्था करता है .
वेद और शास्त्र मनुष्य को निष्काम कर्म का आदेश देते हैं . ' कर्मण्येव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ' अर्थात मनुष्य का अधिकार कर्म करने तक है , फलों में कदापि नहीं . मन बहुत चंचल होता है . वह स्थिर नहीं बैठ सकता . मन थक जाये तो बात बन सकती है . थकान कर्म करने से आती है . मन का थकना ही उसका स्थिर होना है . जब मन स्थिर होता है तो वह शांत हो जाता है . शांत मन निर्मल और निर्विषयी होता है . निर्विषयी मन कामना रहित हो जाता है और यही सुख-दुःख और जीवन-मृत्यु का कारण बनता है .
निष्काम कर्म शुद्ध और बुद्ध मन से ही सम्भव है . कामना और वासना सदा क्रीडा करती रहती है . जो इन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है , वह ही सत्य ही नहीं अपितु परम सत्य को प्राप्त कर लेता है . प्राप्ति में भी योग्यता होती है . पात्रता से ही प्राप्ति होती है . पात्र बनने के लिए अपने को संस्कारित करना पड़ता है . चिन्तन और कर्म से शुद्ध बन कर ही बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव है . जो सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वह असत्य की परिधि से बाहर हो जाता है .*******************
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