बुधवार, 1 जून 2011

श्रद्धा

                                            

श्रद्धा एक मन का भाव है । मान शरीर वह स्थल है , जहाँ मनुष्य कर्मों का फल भोगता है और नये कर्म भी करता है । ये नवीं कर्म इस प्रकार के हों जो उसे आवागमन के चक्र से छुटकारा दिला दे । इस लक्ष्य की प्राप्ति प्रभु की उपासना से ही सम्भव है । और प्रभु की उपासना बिना श्रद्धा के दुष्कर है ।सत्य को धारण करना ही श्रद्धा है । श्रद्धा विश्वास और आस्था पर आधारित होती है । 

श्रद्धा के फलस्वरूप उपासना की जाती है और इस उपासना से बुद्धि निर्मल एवं पवित्र हो जाती है । बुद्धि पवित्र होने से मिथ्या-ज्ञान हट जाता है । मिथ्या-ज्ञान के समाप्त होने से अशुभ कर्म की ओर से प्रवृत्ति हट जाती है । भक्ति श्रद्धा के भाव पर आधारित होती है । भक्ति में यदि श्रद्धा का अभाव है तो वह निष्प्राण कलेवर के समान होती है। श्रद्धा पूवर्क ईश्वर-चिंतन मनुष्य के मुख्य कर्त्तव्यों में प्रमुख है । 

श्रद्धा और भावना मनौती की वस्तु नहीं है ।अनृत को अश्रद्धा के साथ जोड़ा है , जबकि श्रद्धा को सत्य के साथ संयुक्त किया गया है । '*******

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें