गुरुवार, 31 मार्च 2011
बुधवार, 30 मार्च 2011
यह काया पाप की गठरी
यह काया पाप की गठरी
स्वयं का अवलोकन किया जाये तो तब ज्ञात होता है की मैंने इस शरीर के लिए तथा इन इन्द्रियों के पोषण के लिए एवं इन वासनाओं की पूर्ति के लिए क्या-क्या नहीं किया ? हिंसा-झूठ -चोरी -परिग्रह आदि पापों का सहारा लिया ।असत्य ही भाषण किया एवं पर पदार्थों का हरण कर चोरी ही की । यदि भोग्य वस्तु सहज प्राप्त हो गयी तो ठीक अन्यथा येन-केन प्रकारेण उसे हथियाने का प्रयास किया । इन पाप रूपों में सदैव मैं प्रवृत्त रहा । अस्तु , अब हमें सोचना होगा कि मैंने क्या-क्या नहीं किया , जो मुझे करना चाहिए था । यह चिंतनीय है ।
स्वयं का अवलोकन किया जाये तो तब ज्ञात होता है की मैंने इस शरीर के लिए तथा इन इन्द्रियों के पोषण के लिए एवं इन वासनाओं की पूर्ति के लिए क्या-क्या नहीं किया ? हिंसा-झूठ -चोरी -परिग्रह आदि पापों का सहारा लिया ।असत्य ही भाषण किया एवं पर पदार्थों का हरण कर चोरी ही की । यदि भोग्य वस्तु सहज प्राप्त हो गयी तो ठीक अन्यथा येन-केन प्रकारेण उसे हथियाने का प्रयास किया । इन पाप रूपों में सदैव मैं प्रवृत्त रहा । अस्तु , अब हमें सोचना होगा कि मैंने क्या-क्या नहीं किया , जो मुझे करना चाहिए था । यह चिंतनीय है ।
शरीर और आत्मा दो वस्तुएं हमारे पास हैं ; इन दोनों में एक जड़ है और दूसरी चेतन है । एक अशुचिमय एवं मल की पिटारी है तथा दूसरी परम पवित्र एवं शुचि-धर्ममय है । वह आत्मा अनंत गुण वैभव से परिपूर्ण , निर्मल , शांत एवं सुख की खान है । जिसके प्रति पुरुषार्थ करेंगे उसी की ही उपलब्द्धि होगी ।******
मंगलवार, 29 मार्च 2011
जाकी रही भावना जैसी
जाकी रही भावना जैसी
लोक-परलोक सभी कुछ भावना की आधार शिला पर अवस्थित हैं । भावना के अभाव में कृत-कर्म यथारूप प्रतिफलित भी नहीं होता , दुर्भावना से संजोया हुवा उत्तम कार्य भी उत्तम फल का प्रतिदाता नहीं बनता । साथ ही पवित्र भावना के सद्भाव में परिस्थिति वश सम्पादित अतिचार युक्त आचरण अपवित्र नहीं बनाता एवं दुर्गतियों में नहीं भरमाता ।
ग्रहण किए गये विषय का बार-बार चिन्तन करना भावना है । जिस प्रकार बार-बार किया गया छैनी का आघात अभेद्य पाषण को भी भेद देता है । इसी प्रकार पुन: पुन: किया गया तत्व का चिन्तन अज्ञानान्धकार को तिरोहित कर देता है और मिथ्यात्व को समूल नष्ट कर देता है एवं साथ ही कल्मष -मल को प्रक्षालित कर देता है ।
सोमवार, 28 मार्च 2011
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी का प्रहार
कहीं मान , मर्यादा , सम्मान , स्वाभिमान की ग्रन्थियां बाधक बन जाती हैं तो कहीं ईर्ष्या , द्वेष , वैमनस्य , मात्सर्य आदि भावों की ग्रन्थियां हमारा मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं । कहीं लोभ , क्षोभ के शूल हमारे मन में चुभन उत्पन्न करते हैं तो कहीं स्वाभिमान की आढ़ में पलने वाले अभिमान , अहंकार या अनेक मदों की मदहोशी हमें मदमस्त कर देती है । परिणामत: हमें सम्यक-असम्यक पथ का ज्ञान होना ही दुष्कर हो जाता है । यही कारण है हम अपने पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं ।
हम अनेक उलझनों को जन्म देकर स्वयं अपने हाथ से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी का प्रहार कर रहे हैं । इस संसार को मात्र द्रष्टा भाव से ही देखना चाहिए । अपने को निर्वैर और विराग बनाने का प्रयास करना चाहिए । उलझनों के चक्र -व्यूह में फंसकर उद्धार करना कठिन होगा । अत: इन अगणित के मध्य रहकर भी एक को देखने का प्रयास करना चाहिए और तभी कल्याण संभव है ।*******
समझौता जब हम गलत और न्याय
समझौता जब हम गलत और न्याय तब दूसरे गलत
ग्रन्थि से तात्पर्य गाँठ से है अर्थात किसी भी अंग में मांस-चर्बी का एकत्रित हो जाना गाँठ कहलाता है । यह गाँठ सामान्य भी हो सकती है और प्रारम्भ में सामान्य होकर कैंसर का रूप भी ले सकती है । अथवा सामान्य फोड़े तक भी सीमित भी रह सकती है या हो सकता है कि वह साधारण रूप में ही बनी रहे । इतना तो निश्चित है कि गाँठ कोई भी , कहीं भी किसी रूप में शरीर में बन जाये तो वह हानिप्रद ही होती है तथा शारीरिक सौन्दर्य में घातक ही बनती है ।
ग्रन्थि से तात्पर्य गाँठ से है अर्थात किसी भी अंग में मांस-चर्बी का एकत्रित हो जाना गाँठ कहलाता है । यह गाँठ सामान्य भी हो सकती है और प्रारम्भ में सामान्य होकर कैंसर का रूप भी ले सकती है । अथवा सामान्य फोड़े तक भी सीमित भी रह सकती है या हो सकता है कि वह साधारण रूप में ही बनी रहे । इतना तो निश्चित है कि गाँठ कोई भी , कहीं भी किसी रूप में शरीर में बन जाये तो वह हानिप्रद ही होती है तथा शारीरिक सौन्दर्य में घातक ही बनती है ।
कहीं यह गाँठ कैंसर के रूप में परिवर्तित हो जाये तो न जाने कितना दुष्प्रभाव डालती है । अत: कैंसर की गाँठ का ज्ञान होते ही व्यक्ति उसे शीघ्रता से आपरेट कराने की सोचता है । चाहे उसमें कितना ही धन खर्च हो जाये , जब तक उपचार नहीं होता तब तक मन को चैन नहीं आती । इसप्रकार हमारे अन्तरंग में भी एक मिथ्या धारणा कि एक ग्रन्थि पड़ चुकी है और इसका उपचार भी परम आवश्यक है । यह भयानक रूप धारण कर सकता है । इस आंतरिक कैंसर का भी निदान अत्यंत आवश्यक है।%%%%%%%%%%%
हाथ धोके पीछे पड़ना
हाथ धोके पीछे पड़ना
अन्यान्य तरीकों से तन को प्रक्षालित कर प्राणी शरीर को पवित्र मान लेते हैं और अपने में एक संतुष्टि का अनुभव करते हैं कि वह पवित्र और निर्मल हो गया है । इस शरीर को अनंत बार स्वच्छ बनाने का प्रयास किया पर यह पवित्र नहीं हुवा फिर भी जीव ने अपना पुरुषार्थ नहीं छोड़ा । इस शरीर की निर्मलता हेतु हमें आवश्यकता उत्तम गुणों के अपनाने की ।
इसकी निर्मलता हेतु हमें आवश्यकता है अंत:करण को शुद्ध करने की । जिस क्षण भी इसमें डुबकी लगा लेंगे उस क्षण ही समस्त कर्म-कालुष्य , राग-द्वेष आदि विकार , भोग आदि दुष्प्रवृत्तियाँ सभी ही प्रक्षालित हो जाएँगी और अंत:करण के निर्मल स्वरूप के प्रकट हो जाने पर यह शरीर भी पवित्र हो जायेगा । ईंट गारे के बने हुवे मकान में भगवान की प्रतिमा के विराजमान हो जाने पर वह मकान भी मन्दिर बन जाता है , देवता हो जाता है और पूज्यता को प्राप्त हो जाता है । यह देह भी परम पवित्र बन जाती है । धातु , उपधातु आदि विकार से रहित हो जाती है । अत: हमें अंत:करण को प्रक्षालित करने का प्रयास करना चाहिए । अंत:करण शरीर और आत्मा के मध्य की एक कड़ी है ; इसके निर्मल होते ही ये दोनों भी निर्मलता को प्राप्त हो जाते हैं ।
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अन्यान्य तरीकों से तन को प्रक्षालित कर प्राणी शरीर को पवित्र मान लेते हैं और अपने में एक संतुष्टि का अनुभव करते हैं कि वह पवित्र और निर्मल हो गया है । इस शरीर को अनंत बार स्वच्छ बनाने का प्रयास किया पर यह पवित्र नहीं हुवा फिर भी जीव ने अपना पुरुषार्थ नहीं छोड़ा । इस शरीर की निर्मलता हेतु हमें आवश्यकता उत्तम गुणों के अपनाने की ।
इसकी निर्मलता हेतु हमें आवश्यकता है अंत:करण को शुद्ध करने की । जिस क्षण भी इसमें डुबकी लगा लेंगे उस क्षण ही समस्त कर्म-कालुष्य , राग-द्वेष आदि विकार , भोग आदि दुष्प्रवृत्तियाँ सभी ही प्रक्षालित हो जाएँगी और अंत:करण के निर्मल स्वरूप के प्रकट हो जाने पर यह शरीर भी पवित्र हो जायेगा । ईंट गारे के बने हुवे मकान में भगवान की प्रतिमा के विराजमान हो जाने पर वह मकान भी मन्दिर बन जाता है , देवता हो जाता है और पूज्यता को प्राप्त हो जाता है । यह देह भी परम पवित्र बन जाती है । धातु , उपधातु आदि विकार से रहित हो जाती है । अत: हमें अंत:करण को प्रक्षालित करने का प्रयास करना चाहिए । अंत:करण शरीर और आत्मा के मध्य की एक कड़ी है ; इसके निर्मल होते ही ये दोनों भी निर्मलता को प्राप्त हो जाते हैं ।
रविवार, 27 मार्च 2011
साम्यावस्था प्रकृति , अन्यथा विकृति
साम्यावस्था प्रकृति , अन्यथा विकृति
यह प्रकृति त्रिगुण सत्ता से युक्त है । सत , रज और तम का समन्वित रूप ही यह प्रकृति है । परिणामत: तीन का बड़ा ही महत्त्व है । संसार-मोक्ष , सुख-दुःख , जीवन-मरण , रुग्णता-निरोगता आदि सभी तीन पर ही अवलम्बित हैं ।ये आत्मा की स्वाभाविक शक्तियाँ हैं और स्वभावभूत गुण हैं । सम्यकदर्शन के प्रकट होते ही सम्यकज्ञान तो जागृत होता ही है परन्तु सम्यकचारित्र का भी उद्भव प्रारम्भ हो जाता है ।
तीन सरिताएं जहाँ आकर एक साथ मिल जाती हैं , वह स्थान लोक में पूज्य माना जाता है । उसे त्रिवेणी के नाम से पुकारा जाता है । उस स्थान पर सननन करना पुण्य कार्य माना जाता है । सामान्यत: यह धारणा है कि त्रिवेणी में स्नान करने से उसके सब पाप धुल जाते हैं । और ऐसी ही परम पावनी त्रिवेणी हमारे अंतर में भी सतत विद्यमान है , जिसके निर्मल जल का पान हमें अमरत्व की तरफ ले जाता है ।
मृण्मय जगत से चिन्मय जगत में पहुंचना ही अमरत्व है । अशांति से शांति की प्राप्ति होती है । इसमें स्नान करने से जन्म-जन्म के संचित पाप प्रक्षालित हो जाते हैं । इसमें डुबकी लगाने से असंख्य गुण रत्नों की प्राप्ति सहज ही हो जाती है । इसका जल इतना स्वादिष्ट है कि एक बूंद भी एक बार प्राप्त हो जाने पर न जाने कितने जन्मों के कड़वे पदार्थों के सेवन से बिगड़ा हुवा जिह्वा का स्वाद भी मिष्ट हो जाता है । इस रस की रसानुभूति सर्व दुखों को विस्मृत ही नहीं,अपितु समाप्तही कर देती है ।*******
फ्रिज का खाना बीमारी लाना
भागमभाग
फ्रिज का खाना बीमारी लाना आज मानव जीवन में संयम और धैर्य की कमी है । ये दोनों चीजें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । असंयम से अधैर्य पैदा होता है और अधैर्य से असंयम । इन्द्रिय-असंयम आज की अनेक समस्याओं के मूल में है । , बासी एवं प्रिजर्वेटिव युक्त फास्ट फूड , रात्रि जागरण , देर तक सोना , नशीले पदार्थों का सेवन , कुत्सित विचार युक्त कथाओं का देखना -सुनना आदि इन्द्रिय -असंयम ही आता हैi ।
भ्रष्टाचार के बढ़ने के मूल में भी असंयम ही है । अपवित्र साधनों से समृद्धि की बाढ़ तो आ सकती है , परन्तु सुख और शांति नहीं । यही कारण है कि हमारे भव्य मन्दिर और विद्यालय अपेक्षित शांति और सदाचरण नहीं दे पा रहे हैं । व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है । वह पड़ोसी के सुख-दुःख से भी सर्वथा असम्पृक्त होता जा रहा है।++++++++++++++++++++++
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