गुरुवार, 31 मार्च 2011

जितना तपोगे उतना निखरोगे

जितना तपोगे उतना निखरोगे 




संसार में संसरण करने वाले प्रत्येक प्राणी के मन में कुछ आकांक्षाएं हैं ।  पशु-पक्षियों की चाह मात्र पेट भरने एवं सर्दी -गर्मी से छुटकारा प्राप्त करने में ही होती है ; परन्तु मानव-मन की चाह का वृत्त इतना बड़ा हो गया है कि वह सब कुछ अपने में समाहित करने को आतुर रहता है । इतना ही नहीं इसके मन की सबसे बड़ी चाह यह है कि मैं सबसे आगे रहूँ । 




परम शुद्ध चैतन्य विकार रहित यह आत्मा विषयों की चाह के कारण अहर्निश महा दाह से ग्रसित है । तृष्णा की ज्वाला इसके अंतर मन को प्रज्ज्वलित कर रही है । जिस प्रकार वन में सूखे वृक्षों परस्पर रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है । उसके फलस्वरूप वन में विद्यमान हरे-भरे , पुष्पित-पल्लवित वृक्ष भी जलकर खाक हो जाते हैं और अपने सौन्दर्य को खो देते हैं। हमारे सात्विक गुणरूपी हरित वृक्ष भी जलकर खाक हो जाते हैं ।



यदि दाह ही प्राप्त करनी है तो तो तप की दाह अपने में उत्पन्न करनी चाहिए , इससे सम्पूर्ण विकार ही भस्म हो जायेंगे तथा शुद्ध स्वरूप निखर जायेगा ।सभी प्राणियों की अपनी-अपनी राह है । नभ-जल-स्थल मार्ग पर अपनी -अपनी राहें बनाई जाती हैं । जो जिस मार्ग से अपनी मंजिल तक और अपने इच्छित स्थान तक पहुँच जाये वह उसकी राह है । इन सब राहों से आगे मोक्ष प्राप्त करने तथा परम मुक्ति में स्थापित करने वाली राह है । इतना तो निश्चित है कि जो जिस राह पर कदम बढ़ा देता है तो वह उस मंजिल तक पहुँच ही जाता है ।######



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