बुधवार, 30 मार्च 2011

यह काया पाप की गठरी

यह काया पाप की गठरी 





स्वयं का अवलोकन किया जाये तो तब ज्ञात होता है की मैंने इस शरीर के लिए तथा इन इन्द्रियों के पोषण के लिए एवं इन वासनाओं की पूर्ति के लिए क्या-क्या नहीं किया ? हिंसा-झूठ -चोरी -परिग्रह आदि पापों का सहारा लिया ।असत्य ही भाषण किया एवं पर पदार्थों का हरण कर चोरी ही की । यदि भोग्य वस्तु सहज प्राप्त हो गयी तो ठीक अन्यथा येन-केन प्रकारेण उसे हथियाने का प्रयास किया । इन पाप रूपों में सदैव मैं प्रवृत्त रहा । अस्तु , अब हमें सोचना होगा कि मैंने क्या-क्या नहीं किया , जो मुझे करना चाहिए था । यह चिंतनीय है ।

शरीर और आत्मा दो वस्तुएं हमारे पास हैं ; इन दोनों में एक जड़ है और दूसरी चेतन है । एक अशुचिमय एवं मल की पिटारी है तथा दूसरी परम पवित्र एवं शुचि-धर्ममय है । वह आत्मा अनंत गुण वैभव से परिपूर्ण , निर्मल , शांत एवं सुख की खान है । जिसके प्रति पुरुषार्थ करेंगे उसी की ही उपलब्द्धि होगी ।******



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