मंगलवार, 29 मार्च 2011

जाकी रही भावना जैसी

जाकी रही भावना जैसी 




 लोक-परलोक सभी कुछ भावना की आधार शिला पर अवस्थित हैं । भावना के अभाव में कृत-कर्म यथारूप प्रतिफलित भी नहीं होता , दुर्भावना से संजोया हुवा उत्तम कार्य भी उत्तम फल का प्रतिदाता नहीं बनता । साथ ही पवित्र भावना के सद्भाव में परिस्थिति वश सम्पादित अतिचार युक्त आचरण अपवित्र नहीं बनाता एवं दुर्गतियों में नहीं भरमाता ।



ग्रहण किए गये विषय का बार-बार चिन्तन करना भावना है । जिस प्रकार बार-बार किया गया छैनी का आघात अभेद्य पाषण को भी भेद देता है । इसी प्रकार पुन: पुन: किया गया तत्व का चिन्तन अज्ञानान्धकार को तिरोहित कर देता है और मिथ्यात्व को समूल नष्ट कर देता है एवं साथ ही कल्मष -मल को प्रक्षालित कर देता है ।




समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री की भावना , दीन दुखियों के प्रति करुणा की भावना एवं विपरीत वृत्ति वालों के प्रति उपेक्षा या मध्यस्थता की भावना सम्यक भाव को उत्पन्न कर देती है । इसी से ही भावना की पवित्रता और निर्मलता सिद्ध होती है ।********



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