जाकी रही भावना जैसी
लोक-परलोक सभी कुछ भावना की आधार शिला पर अवस्थित हैं । भावना के अभाव में कृत-कर्म यथारूप प्रतिफलित भी नहीं होता , दुर्भावना से संजोया हुवा उत्तम कार्य भी उत्तम फल का प्रतिदाता नहीं बनता । साथ ही पवित्र भावना के सद्भाव में परिस्थिति वश सम्पादित अतिचार युक्त आचरण अपवित्र नहीं बनाता एवं दुर्गतियों में नहीं भरमाता ।
ग्रहण किए गये विषय का बार-बार चिन्तन करना भावना है । जिस प्रकार बार-बार किया गया छैनी का आघात अभेद्य पाषण को भी भेद देता है । इसी प्रकार पुन: पुन: किया गया तत्व का चिन्तन अज्ञानान्धकार को तिरोहित कर देता है और मिथ्यात्व को समूल नष्ट कर देता है एवं साथ ही कल्मष -मल को प्रक्षालित कर देता है ।
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