शनिवार, 20 नवंबर 2010

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता



स्वतंत्रता--दिवस पर हम गौरव से स्वतंत्रता की चर्चा करते हैं। गणतंत्र-दिवस पर देश के संविधान पर चिंतन करते हैं। यदि हम स्वतंत्र हैं और हमें हमारे द्वारा निर्मित संविधान भी प्राप्त है तो हम चुप क्यों हैं ? हमें इतने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए ; अब आत्मिक स्वातंत्र्य पर संघर्ष होना चाहिए। संघर्ष यह लाठी, तलवार , बंदूक शस्त्रों से नहीं ; अपितु कर्त्तव्य ,व्रत , अध्यात्म और शास्त्रों को हाथ में लेकर करना चाहिए। एक तरफ हमारी शक्ति दिनचर्या के सुधार की हो तो दूसरी ओर आत्मविकास की होनी चाहिए। शस्त्र चलाना भले ही सीखें , पर शास्त्रों के अध्ययन में बिलकुल भी पीछे न रहें। कल हमारे अनेक भाईयों ने स्वतंत्रता के लिए प्राण न्यौछावर किये थे ; आज हम धर्म , सदाचार , सेवा , व्यसन-त्याग के लिए प्राण नहीं अपितु स्वयं को समर्पित करें। इस महान देश में केवल महान उत्कृष्टता के लिए प्राण धारण करें।********************




शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

निरोग रहने का टॉनिक

निरोग रहने का टॉनिक 



अध्यात्म क्या है ? अगर हम इसे एक - वैद्य की भाषा में समझना चाहें , तो ध्यान रखना चाहिए की अध्यात्म एक ' टानिक ' है। जो मन के साथ तन को भी निरोग बनाता है। यह अलग बात है कि लोग समझना नहीं चाहते हैं। अध्यात्म चर्चा का विषय नहीं अपितु चर्या और व्यावहारिक प्रक्रिया है। इसे वही प्राप्त कर सकता है , जिसमें ध्यान किया  है। जिसकी आत्मा आत्मस्थ है। अध्यात्म को ग्रहण करने वाला प्रतिकूलताओं से कभी नहीं घबराता। अपितु स्व-विवेक धारण करके सुख के क्षणों को प्राप्त करता है। वह जानता है कि जिस सिर पर अभी कष्टों की धूप है ; शाम तक सुखों की छाया भी  और प्रतिकूलताओं का अनुवाद या रूपांतरण धर्म में कर जाएगी।$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

बचो घर के महाभारत से

मैत्री




पड़ोसी को सुखी देखकर हम दुखी क्यों हो जाते हैं ? सभी जीवों के प्रति मैत्री क्यों नहीं निभाते ? यदि भावना का महल मैत्री की नींव पर बनायेंगे , तो बाहर तो बाहर ; घर के महाभारत से भी बच जायेंगे। फिर हमें कभी कोई कुछ नहीं कहेगा। मैत्री-भाव से सब जीव आत्मवत हो जायेंगे। इस प्रकार अंतस में मैत्री का दीप सदा जलता रहेगा।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&




बुधवार, 17 नवंबर 2010

गुलाम बनो पर अपने नहीं

 फूलों की सेज


स्पर्श-इन्द्रिय से हमें हल्का , भारी , रूखा , कड़ा , चिकना , ठंडा , गर्म एवं नर्म इन आठ बातों का ज्ञान होता है। जैसे रूई हल्की , बर्फ ठंडा , अग्नि गर्म , लोहा भारी , रेत रूखी , घी-तेल चिकना , पत्थर कड़ा और रबर नर्म यह सब छूने से ज्ञात होता है। जिससे छूकर आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान होता है।




इस सन्दर्भ में एक प्रमुख कथा है। एक राजा स्पर्श इन्द्रीय का गुलाम और शरीर का दास था। वह चलता था तो सडकों पर मखमल की कालीनें बिछ्वाता था। सोता तो पहले फूलों की शैया सजवाता। उस राजा ने सभी कार्यों के लिए दास नियुक्त कर दिए थे। दास भी ईमानदारी का परिचय देते और अपना कार्य बड़ी तत्परता से करते थे। एक दिन दास का फूलों की सेज सजाने का काम जल्दी समाप्त हो गया। उस दास ने सोचा कि राजा को आने में अभी देरी है , क्यों न मैं ही कुछ देर इस शैया पर लेट जाऊं। जिन्दगी में पहली बार शैया पर लेटा था। अत: तत्क्षण ही उसे नींद आ गयी। दास को समय का ख्याल ही नहीं रहा और राजा का आगमन हो गया।



जैसे ही राजा कमरे में प्रवेश करता है कि फूलों की सेज पर दास को सोते हुवे देखता है। तो उसका क्रोध उमड़ पड़ता है और वह बिना सोचे समझे चाबुक से उस दास की पिटाई प्रारम्भ कर देता है। दास पर जैसे ही चाबुक की मार पड़ी , वह एकदम हड़बड़ाकर जाग गया। राजा ने चाबुक से मार-मार कर उसकी चमड़ी लाल कर दी। वह दास कोड़े की मार से पीड़ित हो चीख-चीख कर रोने लगा। पर थोड़ी देर बाद वह दास बहुत जोर से हंसने लगा। राजा ने देखा कि अभी तक मार से यह प्राणों की भीख मांग रहा था, अब क्यों हंसने लगा ? निश्चित ही इसके हंसने में कोई रहस्य है।


राजा ने पूछा तुम अभी तक चाबुक की मार से रो रहे थे, अब क्यों हंस रहे हो ? दास ने कहा _ ' हजूर , कसूर माफ़ हो तो कहूँ। राजा ने कहा _ ' हाँ , कसूर माफ़ है। क्यों क्या कहना चाहते हो ? ' दास ने कहा _ ' हजूर , मैं एक घंटे के लिए फूलों की शैया पर सोया तो मुझे इतने चाबुक पड़े और आप कई वर्षों से इसमें सो रहे हैं तो आपको कितने चाबुक पड़ेंगे। इस विचार से मैं हंस पड़ा। '

राजा विचार करने लगता है _ हाँ, जब मेरे लिए सजे-सेज पर दास सोया तो मैंने इसे मारा। प्रकृति के सौन्दर्य के लिए पुष्पों की रचना हुयी है। यदि मैं इन फूलों को नष्ट करूंगा तो प्रकृति मुझ पर रुष्ट होगी और मुझे सजा देगी। यह विचार मन मीन आते ही राजा ने मन में एक संकल्प लिया कि मैं अपने शरीर के सुख के लिए कोई भी हिंसा नहीं करूंगा। साथ ही फूलों में , वृक्षों में , पानी में , अग्नि में , वायु में , पृथ्वी में भी हमारे जैसे जीव हैं, हमारे जैसे प्राण हैं। इन्हें हमें बिना प्रयोजन कष्ट नहीं देना चाहिए। संसार के किसी भी प्राणी को शरीर -सुख के लिए कष्ट देना पाप है। राजा की यह बात समझ में आ गयी कि वह अब शरीर का गुलाम बनकर नहीं रहेगा और वह स्पर्श-सुख से दूर ही रहेगा।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

जीतो मौत को

जीतो मौत को सुगन्धित एवं पौष्टिक आहार से 



रसना इन्द्रिय जिह्वा को कहते हैं , अर्थात जिसके द्वारा ६ प्रकार के रस का ज्ञान हो , उसे रसना इन्द्रिय कहते हैं। ये रस हैं _ खट्टा , मीठा , नमकीन , कटु , तीखा और कसैला। इस प्रकार जो मिठाई , अम्लीय , नमकीय , कडवे- करेला,नीम आदि , मिर्च-मसाले , आंवला-हरड़ आदि। जहर चाहे जानबूझकर खाओ और चाहे अनजाने में , मरना तो पड़ेगा ही। अभक्ष्य-भक्षण करोगे तो स्वास्थ्य भी खराब होगा और इसी को ही दुर्गति कह सकते हैं। 

सो इस सन्दर्भ में एक प्रमुख कथा है। काल्पिय नगर के राजा का नाम भीम था। वह राजा रसना इन्द्रिय का अत्यंत लोभी था। दुनिया भर की तमाम श्रेष्ठ वस्तु खाने के उपरांत भी उसका मन एवं उसकी जिह्वा तृप्त नहीं होती थी। उसने अपनी रसना इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए मांस खाना प्रारम्भ कर दिया। रसोइया प्रति दिन मांस पका कर लाता और राजा खाने के लिए देता।


एकदिन राजा को मांस प्राप्त नहीं हुवा तब उसने अपने रसोइये से कहा, ' कहीं से भी कैसे भी हो मुझे मांस खिलाओ। ' राजा की आज्ञा को रसोइया टाल नहीं सका और मांस की तलाश में निकल पड़ा। पर उसे कहीं भी मांस नहीं मिला। वह नगर के श्मशान में गया और वह एक मरे बालक को उठा लाया। राजा को मांस बड़ा स्वादिष्ट लगा। उसने रसोइये से पूछा _ ' आज तुमने मुझे किस पशु का मांस खिलाया। ' रसोइये ने घबराते हुवे कहा _ ' महाराज ! मुझे कहीं किसी पशु का मांस नहीं मिला , तो मैंने श्मशान से एक मृत बालक को उठा लिया और उसी का मांस आपको खिलाया है। ' राजा ने कहा _ ' ठीक है , तुम आज से मुझे एक बालक का मांस ही खिलाया करो। '


रसोइया राजा की आज्ञा मानकर प्रतिदिन एक थाल में लड्डू बनाकर नगर के विद्यालय के बाहर सभी बालकों को देता और मौका पाकर झट एक बालक को पकड़ लेता और उस बालक को मारकर राजा को मांस खिलाता। इस क्रम के कारण नगर में प्रतिदिन एक बालक की कमी होने लगी। नगर में खलबली मच गयी। यह एक चर्चा एवं चिंता का विषय हो गया कि प्रतिदिन बालक गायब कहाँ हो जाते हैं ? सभी नगरवासी भयभीत हो ' बालक चोर ' व्यक्ति को पकड़ने को उद्यत हुवे।


 नगर में चंद दिनों के पश्चात ' बालक चोर ' रसोइये को पकड़ लिया गया और उससे पूरी जानकारी ली गयी। राजा की इस लोलुपता और क्रूरता का जब नगरवासियों को ज्ञान हुवा तो उन्होंने राजा और रसोइये को नगर के बाहर निकाल दिया। दोनों जिह्वा लोलुपी पापी जंगल में भ्रमण करने लगे , राजा की जिह्वा नर -मांस खाने के लिए लपलपाने लगी। तब उस राजा ने उस रसोइये को मारकर अपनी जिह्वा को तृप्त किया और कुछ समय के उपरांत वह मरकर नरक को प्राप्त हुवा।


 इस रसना इन्द्रिय की लोलुपता के कारण ही मछली अपना गला फंसाती है और मृत्यु को प्राप्त कर लेती है। इस जिह्वा की लोलुपता के कारण अनेकों को अपने प्राणों को देना पड़ा है। अत: रसना और जिह्वा कि लोलुपता से सदा ही बचना चाहिए।


मंगलवार, 16 नवंबर 2010

मृग ढ़ूंढ़े बन माहिँ

मृग ढ़ूंढ़े बन माहिँ ऐसो घटि -घटि राम हैं 



सत्य है कि संसार में घ्राण-इन्द्रिय ही ऐसी इन्द्रिय है , जो हमेशा गंदगी में रहती है और अच्छी-अच्छी सुगंध चाहती है। यह शरीर का एक अंग है, जिसे हम नाक और नासिका कहते हैं; यही घ्राण-इन्द्रिय है। इससे सुगंध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है , अत: यह ज्ञानेन्द्रिय है। हमारी घ्राण इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए बीबर नामक जन्तु को बड़ी निर्ममता से मारा जाता है। उसे मारने के लिए जंगल में लकड़ी के खूंटे गाड़ देते हैं और लोहे का जाल बिछा देते हैं। बीबर भागता हुवा उस जाल में फंस जाता है। फिर उसे १५-२० दिन तक भूखा रखा जाता है , फिर हमारी गंध-तृप्ति के लिए उसे मार डाला जाता है और उसके शरीर से सुगन्धित पदार्थ निकाला जाता है।

इसी प्रकार कस्तूरी मृग को भी मारकर उसकी नाभि से इत्र निकाला जाता है। व्हेल मछली को भी चीरकर ' एवरग्रीस ' नामक सुगन्धित पदार्थ प्राप्त करने के लिए उसे निरंतर मारा जाता है। अत: इस प्रयोजन के लिए अनेक जीवों की हत्या की जाती है। हजारों - लाखों टन फूलों को तोड़कर उनका रस निकालकर इत्र बनाया जाता है और हम अपनी घ्राण-इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए कितनी हिंसा का अप्रत्यक्ष समर्थन करते है. 


इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध कथा है । अयोध्या के राजा विजयसेन के दो पुत्र थे। जयसेन और गंधमित्र। संसार की अस्थिरता को देखकर विजयसेन को वैराग्य हो गया। वे अपने बड़े पुत्र जयसेन को राजा एवं छोटे पुत्र को युवराज पद दे गये। और वे स्वयं मुनि होकर वन को चले गये।
जैसे कंजूस को दान अच्छा नहीं लगता , लोभी को मांगने वाला अच्छा नहीं लगता , कर्जदार को तकादा अच्छा नहीं लगता। व्यभिचारिणी स्त्री को पति अच्छा नहीं लगता , निर्धन धनवान अच्छा नहीं लगता ; उसी प्रकार जयसेन का राजा होना भी गंधमित्र को अच्छा नहीं लगा। गंधमित्र ने अनेक कूटनीतिज्ञ चालें चलकर जयसेन को राज्य-च्युत करा दिया। इससे जयसेन बहुत क्रोधित हुवा और गंधमित्र को मारने का विचार करने लगा। सत्य ही है कि गेंद को जितनी जोर से दीवार मारा जाता है , वह उतनी ही तेजी से वापिस आती है। ईर्ष्या जितना ज्यादा होती है , उसका बदला उतना ही चुकाना पड़ता है।


गंधमित्र ' यथा नाम तथा गुण ' को रखता था। उसे सुगंध के प्रति अत्यधिक आकर्षण रहता था। उसने नगर के समस्त उद्यान-मालिकों को कह रखा था कि जितने प्रकार के पुष्प तुम्हारे बाग़ में उत्पन्न हों , उन सभी पुष्पों को हमारे महल में लाया करो। ताकि मैं उनकी गंध लेकर अपने मस्तिष्क को तरोताजा कर सकूं। गंधमित्र जहाँ भी जाता और उसे किसी भी प्रकार का पुष्प मिलता तो वह उठा लेता एवं सूंघने लगता।


एकदिन की बात गंधमित्र अपनी रानियों के साथ जल-क्रीड़ा करने के लिए सरयू नदी में गया। जयसेन मौके की तलाश में था। उसने अच्छा मौका पाकर नदी के प्रवाह में ऊपर से भयंकर विष को पुष्पों में छिड़ककर छोड़ दिए। घ्राण-इन्द्रिय का दीवाना गंधमित्र था ही , उसने उन फूलों को उठा कर सूँघना प्रारम्भ कर दिया। उनकी सुगंध से उनमे छिड़का विष उसके शरीर में प्रवेश कर गया। और कुछ समय के उपरांत उसकी मृत्यु हो गयी। वह घ्राण-इन्द्रिय के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हो गया।*************************************


सोमवार, 15 नवंबर 2010

अंधे आँख होते भी

अंधे आँख होते भी 



रूप को देखने के लिए चक्षु की आवश्यकता होती है ; चक्षु के माध्यम से विविध रूप और रंग को देखते हैं। सप्तरंगी इन्द्रधनुष को देखते हैं , पर वास्तव में रंग पांच होते हैं। शेष रंग इन्हीं रंगों के मिश्रण से बनते हैं। मूलत: रंग पांच ही होते हैं , ये हैं _ काला , पीला , लाल , सफेद और नीला। चक्षु इन्द्रिय से रूप-रंग देखना कोई बुरी बात नहीं है , पर रूप-रंग में आसक्त होना बहुत बुरी बात है। क्योंकि आँखों के माध्यम से ही सबसे ज्यादा पाप होता है।


भतृमित्र नाम का एक धनपति था। उसकी पत्नी का नाम देवदत्ता था। धनपति अपने अनेक मित्रों के साथ वसंतोत्सव के लिए वन में गया। वन में पहुंचने के उपरांत उसने देखा कि वसंतसेन नाम उसका मित्र एक बाण से निशाना साध कर आम्रमंजरी को तोडकर अपनी पत्नी को कर्ण- आभूषण पहना रहा है। उसे देखकर उसकी पत्नी देवदत्ता ने अपने पति से कहा _ ' हे प्राणनाथ ! आप भी बाण द्वारा आम्र-मंजरी को तोड़कर मुझे दीजिये। ' भतृमित्र को बाण-विद्या नहीं आती थी। अत: वह अपनी पत्नी को आम्र-मंजरी नहीं दे सका। इस पर उसे बहुत लज्जा आई। भतृमित्र ने अपने मन में संकल्प किया कि मुझे किसी भी प्रकार से बाण-विद्या अवश्य ही सीखनी चाहिए।


सत्य ही कहा है _ धुन का पक्का , कर्त्तव्य करने में जुटे रहने का अभ्यस्त , मधुरभाषी , प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाला , मेल-जोल बनाये रखने वाला , पशंसा करने वाला , पीठ-पीछे किसी की भी निंदा न करने वाला , नम्रता पूर्वक हंसकर स्वागत करने वाला , दान देने वाला , कटु-वचन सुनकर उत्तेजित न होने वाला तथा दृढ़ संकल्प करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में शीघ्र ही सफल हो जाता है।

दृढ़-संकल्पी भतृमित्र ने मेघपुर नगर के धनुर्विद्या विशारद पंडित के पास जाकर उसे बहुत धन-धान्य देकर , उनकी सेवा करके बाण-विद्या सीखना प्रारम्भ कर दिया और कुछ समय के उपरांत धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली। फिर उस नगर के राजा की पुत्री मेघमाला को प्रण में जीत कर उसके साथ विवाह कर लिया , तथा दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। बहुत समय व्यतीत होने के बाद घर से समाचार आने के कारण भतृमित्र राजा से विदा लेकर घर की ओर चल दिया। राजसी ठाठ -बाट के साथ रथ पर सवार होकर वह मेघमाला के साथ भाद्दिल नगर की ओर जा रहा था कि रास्ते में उसे एक भीलों का बहुत बड़ा समूह मिल गया। वे भील आने-जाने वाले पथिकों को लूटते तथा अपने जीवन का निर्वाह करते थे।



उन भीलों के सरदार का नाम सुवेग था। सुवेग मेघमाला के सुंदर रूप को देख कर मोहित हो गया। वह चोरी के साथ-साथ लूट में सुंदर स्त्रियों का भी अपहरण भी कर लेता था। वह मेघमाला के रूप-लावण्य पर मोहित होकर भतृमित्र से युद्ध करने लगा। मेघमाला सुवेग का मन युद्ध से विचलित करने के लिए उसकी ओर जाने लगी। चक्षु-इन्द्रिय का दीवाना सुवेग युद्ध करना भूल गया। और मेघमाला का रूप-लावण्य देखने लगा। इतने में भतृमित्र ने बाण मारा और उसके दोनों नेत्र नष्ट कर दिए। सुवेग घायल होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया।

एकबार आँख का दुरूपयोग करने के कारण सुवेग जैसा बलशाली भील भी मरण को प्राप्त हुवा। सीता ने एकबार स्वर्ण-मृग को देखकर और उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ा था। कीचक ने बुरी निगाह से द्रौपदी को देखा तो उसे भी मृत्यु को प्राप्त करना पड़ा। पतंगा चक्षु इन्द्रिय की दासता के कारण दीपक पर न्यौछावर हो जाता है और मरण को प्राप्त होता है। हम भी अपनी आँखों तृप्ति के लिए विभिन्न दुष्प्रयास करते रहते हैं और पापों के बंध में फंसते चले जाते हैं। अत: हमें सम्यक दृष्टि का ही निर्वाह करना चाहिए।************************************


रविवार, 14 नवंबर 2010

दिमाग पैराशूट के समान खुला रखिये

परीक्षण के बाद नमन  




दीपावली का पर्व था। राजा ने विचार किया कि राज्य करते-करते मुझे काफी समय व्यतीत हो गया। राज्य के झंझटों से मुझे जरा भी फुर्सत नहीं मिलती कि थोड़ी देर नगर का परिभ्रमण कर सकूं। अपने नगर वासियों को देख सकूं। राजा के मन में जैसे ही नगर-भ्रमण का विचार उत्पन्न हुवा , वैसे ही उसने अपने सैनिकों से कहा _ ' आज मैं नगर-परिक्रमा हेतु निकलूंगा। '


राजा के नगर-परिक्रमा की बात सुनकर सारे नगर की सफाई प्रारम्भ हो गयी। कहीं भी गंदगी को स्थान नहीं दिया गया। राजा नगर -परिक्रमा को निकला सड़क के दोनों ओर सैनिक और प्रजाजन अभिवादन में खड़े थे। राजा की सवारी आगे बढ़ती जा रही थी। और नगर-वासी पुष्प-वर्षा कर उनका स्वागत कर रहे थे। तभी एक कुत्ता आता है और सड़क पर मल करके चला जाता है। सैनिक जैसे ही सड़क पर मल पड़ा देखते हैं तो घबरा जाते हैं और तुरंत ही एक माली से टोकरी लेकर उस मल के ऊपर डाल देते हैं।


फूलों का ढ़ेर लगा हुवा है। राजा के निकलने से पूर्व कुछ सैनिक आगे निकलते हैं और पुष्प के ढ़ेर को देखकर नतमस्तक हो जाते हैं तथा एक फूल उठाकर चढ़ा देते हैं। बिना किसी जानकारी के सभी सैनिक फूल चढ़ाते हैं और नमन करके आगे बढ़ जाते हैं। थोड़ी देर के बाद राजा वहां से निकलता है और जैसे ही फूलों के ढ़ेर देखता है तो बड़ा प्रसन्न होता है। वह तुरंत कहता है _ ' धन्य है भाग्य कि मुझे नगर-परिक्रमा में विख्यात पुष्प-देवता के दर्शन हुवे। मैं कृत्य-कृत्य हो गया। ' और वह एक पुष्प चढ़ा देता है तो पास खड़ा मंत्री हंस पड़ता है।


 राजा मंत्री को हंसता देखकर कहता है _ ' क्यों , मंत्रीजी आप क्यों हंस रहे हैं ? लीजिए आप भी फूल अर्पित करके अपना जीवन धन्य कीजिये। ' मंत्री कहता है _ ' प्रभु, मैं कई वर्षों से इस मार्ग पर गुजरता आ रहा हूँ , पर मुझे इस मार्ग पर आज तक किसी देवता के दर्शन नहीं हुवे। आज वे पुष्प-देवता कहाँ से प्रकट हुवे। यह मुझे समझ में नहीं आ रहा। मैं भीड़ का पुजारी नहीं हूँ। मैं भेड़-चाल नहीं चलता हूँ। मैं पहले देवता का निरीक्षण एवं परीक्षण करता हूँ। बाद में नमन करता हूँ। जरा आप भी आकर देखिये। इस पुष्प देवता में कौन से देवता हैं ? ' राजा ने सैनिकों को आज्ञा दी और तुरंत पुष्पों को हटाया गया , वहां पर देखा कि कोई देवता नहीं था। मात्र कुत्ते का मल था।


अत: हमें अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए। अपनी बुद्धि और विवेक का भी इस्तेमाल करना चाहिए। पहले निरीक्षण एवं परीक्षण करना चाहिए उसके बाद ही नमन करने की प्रक्रिया की जनि चाहिए।uuuuuuuuuuuuu