मंगलवार, 2 नवंबर 2010

जो दिखायी न दे उसे श्रद्धा की आँख से देखो

श्रद्धावान लभते ज्ञानं अर्थात जो दिखायी न दे उसे श्रद्धा की आँख से देखो 
           


परमात्मा -दर्शन की समस्त सम्भावनाएं मनुष्य की श्रद्धा पर केन्द्रित होती है। श्रद्धा के बलवती होने पर ही परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है। संसार की दृष्टि में श्रद्धा चाहे अंध-विश्वास या पागलपन हो, पर यह सौभाग्य भी किसी-किसी को प्राप्त होता है। अदृश्य को खोजने के लिए श्रद्धा ही पहला साधन है। श्रद्दालु व्यक्ति ही अज्ञात में उतरने का साहस करता है। सत्य की राह पर जो भी लोग कदम बढ़ाते हैं, उन्हें पागल तक कहा जाता है। इसी का परिणाम है कि भवन महावीर के कानों कीलें ठोंकी गयी , ईसा को सूली पर चढ़ाया गया और सुकरात व मीरा को जहर का प्याला पिलाया गया।


श्रद्धा कभी आशंका पर नहीं की जा सकती। यदि आशंका कायम रहेगी ,तो व्यक्ति अदृश्य को खोजने के लिए सागर में गोता नहीं लगा सकेगा। आशंका-ग्रस्त व्यक्ति किसी कार्य को तन्मयता और तत्परता से नहीं कर सकता। किसान द्वारा खेत में बीज का बोना श्रद्धा के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि बोया हुवा बीज पनप पायेगा या नहीं। बीज बोने के बाद उसके नष्ट होने की सैकड़ों प्रबल सम्भावनाएं रहती हैं, लेकिन दृढ़ -प्रतिज्ञ होने के कारण ही फल की आशा में बीज को बोता है।

यह कहना भी ठीक नहीं है कि श्रद्दालु कमजोर होता है , वास्तविकता तो यह है कि श्रद्धालु ही वीर होता है। कमजोर व्यक्ति अपनी कमजोरी छिपाने के लिए ही सैकड़ों झूठे तर्क प्रस्तुत करता है। वह इस तथ्य से जीवित रहता है कि वह प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है और वही कार्य कर रहा है , जो प्रमाणिक हो। यदि ऐसा ही है प्रेम भी उसी समय किया जाए जब प्रेम का प्रमाण मिल जाये। लेकिन इसका प्रमाण मिलना असम्भव है, क्योंकि प्रेम का न कोई शास्त्र होता है और न ही इसकी कोई प्रयोगशाला होती है। यदि व्यक्ति आशंका से वशीभूत होकर जीता रहेगा , तो प्रेम शब्द ही मिट जाएगा। इसलिए श्रद्धा और प्रेम का कोई प्रमाण नहीं होता।**********




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