मंगलवार, 16 नवंबर 2010

मृग ढ़ूंढ़े बन माहिँ

मृग ढ़ूंढ़े बन माहिँ ऐसो घटि -घटि राम हैं 



सत्य है कि संसार में घ्राण-इन्द्रिय ही ऐसी इन्द्रिय है , जो हमेशा गंदगी में रहती है और अच्छी-अच्छी सुगंध चाहती है। यह शरीर का एक अंग है, जिसे हम नाक और नासिका कहते हैं; यही घ्राण-इन्द्रिय है। इससे सुगंध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है , अत: यह ज्ञानेन्द्रिय है। हमारी घ्राण इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए बीबर नामक जन्तु को बड़ी निर्ममता से मारा जाता है। उसे मारने के लिए जंगल में लकड़ी के खूंटे गाड़ देते हैं और लोहे का जाल बिछा देते हैं। बीबर भागता हुवा उस जाल में फंस जाता है। फिर उसे १५-२० दिन तक भूखा रखा जाता है , फिर हमारी गंध-तृप्ति के लिए उसे मार डाला जाता है और उसके शरीर से सुगन्धित पदार्थ निकाला जाता है।

इसी प्रकार कस्तूरी मृग को भी मारकर उसकी नाभि से इत्र निकाला जाता है। व्हेल मछली को भी चीरकर ' एवरग्रीस ' नामक सुगन्धित पदार्थ प्राप्त करने के लिए उसे निरंतर मारा जाता है। अत: इस प्रयोजन के लिए अनेक जीवों की हत्या की जाती है। हजारों - लाखों टन फूलों को तोड़कर उनका रस निकालकर इत्र बनाया जाता है और हम अपनी घ्राण-इन्द्रिय को तृप्त करने के लिए कितनी हिंसा का अप्रत्यक्ष समर्थन करते है. 


इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध कथा है । अयोध्या के राजा विजयसेन के दो पुत्र थे। जयसेन और गंधमित्र। संसार की अस्थिरता को देखकर विजयसेन को वैराग्य हो गया। वे अपने बड़े पुत्र जयसेन को राजा एवं छोटे पुत्र को युवराज पद दे गये। और वे स्वयं मुनि होकर वन को चले गये।
जैसे कंजूस को दान अच्छा नहीं लगता , लोभी को मांगने वाला अच्छा नहीं लगता , कर्जदार को तकादा अच्छा नहीं लगता। व्यभिचारिणी स्त्री को पति अच्छा नहीं लगता , निर्धन धनवान अच्छा नहीं लगता ; उसी प्रकार जयसेन का राजा होना भी गंधमित्र को अच्छा नहीं लगा। गंधमित्र ने अनेक कूटनीतिज्ञ चालें चलकर जयसेन को राज्य-च्युत करा दिया। इससे जयसेन बहुत क्रोधित हुवा और गंधमित्र को मारने का विचार करने लगा। सत्य ही है कि गेंद को जितनी जोर से दीवार मारा जाता है , वह उतनी ही तेजी से वापिस आती है। ईर्ष्या जितना ज्यादा होती है , उसका बदला उतना ही चुकाना पड़ता है।


गंधमित्र ' यथा नाम तथा गुण ' को रखता था। उसे सुगंध के प्रति अत्यधिक आकर्षण रहता था। उसने नगर के समस्त उद्यान-मालिकों को कह रखा था कि जितने प्रकार के पुष्प तुम्हारे बाग़ में उत्पन्न हों , उन सभी पुष्पों को हमारे महल में लाया करो। ताकि मैं उनकी गंध लेकर अपने मस्तिष्क को तरोताजा कर सकूं। गंधमित्र जहाँ भी जाता और उसे किसी भी प्रकार का पुष्प मिलता तो वह उठा लेता एवं सूंघने लगता।


एकदिन की बात गंधमित्र अपनी रानियों के साथ जल-क्रीड़ा करने के लिए सरयू नदी में गया। जयसेन मौके की तलाश में था। उसने अच्छा मौका पाकर नदी के प्रवाह में ऊपर से भयंकर विष को पुष्पों में छिड़ककर छोड़ दिए। घ्राण-इन्द्रिय का दीवाना गंधमित्र था ही , उसने उन फूलों को उठा कर सूँघना प्रारम्भ कर दिया। उनकी सुगंध से उनमे छिड़का विष उसके शरीर में प्रवेश कर गया। और कुछ समय के उपरांत उसकी मृत्यु हो गयी। वह घ्राण-इन्द्रिय के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हो गया।*************************************


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