एक राजा के दरबार में दो देव पहुंचे और वे राजा के सौन्दर्य को निहारते हुवे बोले _ ' जो सौन्दर्य आपका हमने स्नानघर में देखा था , वह सौन्दर्य नहीं रहा। वह सौन्दर्य प्राकृतिक था और यह सौन्दर्य बनावटी है। महाराज ! बनावट में दिखावट है तथा दिखावट में गिरावट है। राजा ने जैसे ही यह बात सुनी तो उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। राजा सोचने लगे _ ' अहो ! प्रात: खिली कली शाम तक मुरझा जाती है। क्या यह सौन्दर्य मोम-सा है , जो क्षण भर में पिघल जाता है ? क्या यह सौन्दर्य धुंए-सा है , जो आकाश में विलीन हो गया, बर्फ-सा है जो पघल गया ? हाँ , रूप क्षण-स्थायी है न जाने कब समाप्त हो जाये। इतना विचार करते-करते उन्होंने सारा राज्य छोड़कर वैराग्य प्राप्त कर लिया।
किस क्षण जीव के पाप का उदय हो जाये कहा नहीं जा सकता। पूर्वकृत पापोदय से राजा के शरीर में कुष्ट-रोग उत्पन्न हो गया। अत: कभी भी अपने रूप का, ज्ञान का , धन का ,कुल का और शरीर का अहंकार नहीं करना चाहिए। पाप का उदय होते ही सारे के सारे ठाठबाट समाप्त हो जाते हैं। राजा का देवदुर्लभ शरीर क्षण-भर में कुष्ठ-रोग से युक्त हो गया। एकबार एक देवता राजा के धैर्य एवं अनासक्त भाव की परीक्षा लेने के लिए आया। वैद्यराज का रूप बना कर वह देवता राजा के सामने पहुंचकर कहने लगा _ ' हे राजन ! मैं आपके रोग का उपचार करने के लिए आया हूँ। आपको अगर कोई रोग हो तो मुझे अवश्य ही बताएं। मैं आपके समस्त रोग दूर कर दूंगा। ' राजा मुस्कुराये और बोले _ ' हे वैद्यराज ! मुझे जन्म-मरण का महा भयंकर रोग लगा हुवा है। यदि आप इस रोग का निदान कर सकते हो तो करिये। '
वैद्य के रूप में देवता ने सारे वैद्यक एवं आयुर्वेद के ग्रन्थ देखे , परन्तु इन दो रोगों का नाम नहीं आया और अंत में राजा के चरणों में नमस्कार करके वह देवता बोला _ ' भगवन ! देव लोक में शरीर के प्रति आपके अनासक्त-भाव के बारे में अत्यधिक चर्चा चल रही थी। मैं उसी प्रशंसा को सुनकर आपकी परीक्षा लेने के लिए आया था। आप परीक्षा में सफल हुवे। धन्य है आपकी अनासक्ति, आपकी तपस्या धन्य है और आपका जीवन वस्तुत: धन्य है।
हमें अपने जीवन में अच्छा कार्य करते रहना चाहिए। तन-मन-धन , रूप-सम्पदा एवं पूर्ण पराक्रम से सेवा करनी चाहिए। ताकि हमारी क्रिया , भक्ति, श्रद्धा और समर्पण की चर्चा भू-लोक में ही नहीं , अपितु स्वर्ग में भी हो सके। हमें जो प्राकृतिक सौन्दर्य प्राप्त हुवा है उस पर हमें विश्वास करना चाहिए। नैसर्गिकता ही स्वाभाविकता है, स्वाभाविकता ही स्वस्थ-मुक्ति है। स्वस्थ-मुक्ति ही स्वस्थ-जीवन की दिशा है।======
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