तनाव अपनों से ही,उनसे अपने को गैर हाजिर रखें
सुख और शांति प्राप्त करना प्राणिमात्र का अधिकार एवं उद्देश्य है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं की बजाय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही प्रयत्न करे , तो अन्यों को अपने अधिकार प्राप्त करने में सुविधा होगी। पहले मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति पकृति के सहारे करता था। प्रकृति से उसकी आवश्यकताएं भी पूर्ण हो जाती थीं। इसलिए वह कभी उद्विग्न नहीं होता था। ऐसे में संग्रह और अधिकार की चेष्टाएँ नहीं की जाती थीं।
आज आकांक्षाएं गिरगिट की तरह रंग बदलती जा रही हैं। इन आकांक्षाओं की पूर्ति में मनुष्य मृग-मरीचिका में फंसता जा रहा है। जब मनुष्य की एक आकांक्षा पूर्ण हो जाती है तो दूसरी आकांक्षा जन्म ले लेती है। संग्रह और अधिकार की भावनाएं ही नई आकांक्षाओं की जन्मदात्री है। जब मनुष्य तक अधिकार-भावना समाप्त नहीं होगी , तब तक विश्व-शांति तो क्या व्यक्तिगत शांति की भी कल्पना नहीं की जा सकती है।
सुख और शांति प्राप्त करना प्राणिमात्र का अधिकार एवं उद्देश्य है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं की बजाय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही प्रयत्न करे , तो अन्यों को अपने अधिकार प्राप्त करने में सुविधा होगी। पहले मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति पकृति के सहारे करता था। प्रकृति से उसकी आवश्यकताएं भी पूर्ण हो जाती थीं। इसलिए वह कभी उद्विग्न नहीं होता था। ऐसे में संग्रह और अधिकार की चेष्टाएँ नहीं की जाती थीं।
आज आकांक्षाएं गिरगिट की तरह रंग बदलती जा रही हैं। इन आकांक्षाओं की पूर्ति में मनुष्य मृग-मरीचिका में फंसता जा रहा है। जब मनुष्य की एक आकांक्षा पूर्ण हो जाती है तो दूसरी आकांक्षा जन्म ले लेती है। संग्रह और अधिकार की भावनाएं ही नई आकांक्षाओं की जन्मदात्री है। जब मनुष्य तक अधिकार-भावना समाप्त नहीं होगी , तब तक विश्व-शांति तो क्या व्यक्तिगत शांति की भी कल्पना नहीं की जा सकती है।
गति , ध्वनि, प्रकाश , वायु सब पर अधिकार करने वाला मनुष्य आज अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं का दास बन गया है। जिस दिन मनुष्य आकांक्षाओं के जाल से मुक्त हो जाएगा , उसी दिन वह प्रसन्न , सुखी और स्वतंत्र हो जाएगा। युगों-युगों से मनुष्य शांति की दुहाई करता आया है , लेकिन उसके सारे प्रयास अशांति के साए में ढले होते हैं। मनुष्य चाहता तो सुख है पर कार्य सभी दुःख के करता है। बबूल के बीज बोकर आम के फल की कामना करना मूर्खता नहीं, तो और क्या है ?
महावीर, बुद्ध, ईसा, सुकरात आदि सभी ने शांति की प्रशस्तियाँ गायी हैं , लिकिन मनुष्य इन वचनों को ठुकरा कर संग्रह-वृत्ति और इच्छा-पूर्ति की आपाधापी एवं अंधी दौड़ में शांति की अपेक्षा अशांति की और बढ़ रहा है। अगर हम जिन्दगी में वास्तविक रूप में शांति प्राप्त करना चाहते हैं , तो हमें अशांति के मूल उत्स को समझना होगा। शांति तक पहुंचने का मार्ग भी अशांति और आकर्षण की फिसलन भरी खाई के बीच से गुजरता है। पर यह सावधानी रखनी आवश्यक है कि कहीं पाँव फिसल न जाए।
व्यक्ति को सबसे अधिक अशांति अपने ही परिवार व अपने ही परिजनों से ही प्राप्त होती है। परिजनों द्वारा गृह-कलह इसका मूल कारण है। पारिवारिक जिन्दगी में कलह जैसा वातावरण उपस्थित होने पर स्वयं को अनुपस्थित समझना कलह से स्वयं को दूर करने का सबसे सरल साधन है। अशांति का दूसरा मूल कारण संदेह है। व्यक्ति भीतर ही भीतर किसी आशंका से जलता-भुनता जा रहा है। उसे चाहिए कि वह शीघ्र ही संदेह से मुक्त हो जाए। वह या तो संदेह का निवारण कर ले या समापन। भौतिक उपलब्धियां जिनसे वास्तव में शांति प्राप्त होनी चाहिए थी, वे अशांति का कारण बन गयी है। कुछ और प्राप्ति की लालसा और प्राप्त भोगों में अतृप्ति मानसिक विपन्नता की जननी है।
चित्त-शुद्धि ही स्थायी एकाग्रता का मुख्य साधन है। बिना चित्त-शुद्धि के बाह्य साधन ध्यान में कभी एकाग्रता नहीं दिला सकते। चित्त को एकाग्र करने के लिए व्यक्ति को पहले-पहल सालम्बन ध्यान करना चाहिए। सालम्बन ध्यान का अर्थ है कि किसी भी वस्तु का सहारा लेना। सालम्बन ध्यान से हमारी मनोवृत्तियां,जो इधर-उधर बिखर रही हैं , वे एक स्थान पर एकत्रित हो जाएंगी, उनसे मुक्त होने का व्यक्ति साधन खोज लेगा।&&&&
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