गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना 


धर्म और सम्प्रदाय मनुष्य के लिए है । मनुष्य धर्म और सम्प्रदाय के लिए नही है । धर्म का अविष्कार मानवों के बीच रहने वाली दूरी को कम करने के लिए हुवा है । जो सम्प्रदाय प्रेम के स्थान पर आपस में वैर- विरोध की प्रेरणा देते हैं , मनवता उन्हें स्वीकार नहीं कर सकती ।

संसार में मन्दिर - मस्जिद और शिवालय खंडहर हो सकते हैं , पर धर्म कभी विनष्ट नहीं हो सकता । जब तक मनुष्य का अस्तित्व रहेगा , तब तक धर्म का अस्तित्व रहेगा ।

मनुष्य सदा आनन्द की खोज करता है और आनन्द की खोज करने का मार्ग ही धर्म है । सम्प्रदाय धीरे -धीरे कट्टरता का रूप धारण कर सकते हैं , लेकिन धर्म कभी कट्टरता का समर्थन नहीं करता । यह कहना गलत बात है कि सम्प्रदाय हमें वैर करना सिखलाता है । अगर सम्प्रदाय का अर्थ धर्म है तो धर्म सदैव मैत्री की भाषा ही सिखलाता है , दुष्मनी की नहीं ।

म आसमान कि ओर अपनी नजर उठायें ओर देखें कि गगन में करोड़ों तारे मिलजुल ओर हिलमिल कर रहते हैं । वे न लड़ते हैं , न झगड़ते हैं । न वहां छुरेबाजी होती है और न खून- खराबा । लेकिन मनुष्य ने धर्म और सम्प्रदाय का नाम लेकर अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कई बार खून -खराबा किया है । चाहे देश स्वतंत्र हुवा हो या अन्य अवसर , धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर उस समय हुयी हिंसा को इतिहास कभी भुला नहीं पायेगा । आपस की दुष्मनी का अंजाम यह हुवा कि हम पर दुनिया हंसने लगी और देश को बदनामी के दौर से गुजरना पड़ा।

मजहब के नाम पर फैलने वाली कट्टरता को यदि समाप्त नहीं क्या गया तो एक दुनिया की मोहब्बत का जनाजा निकलेगा और मृत इंसानों पर आंसू गिराने के लिए इन्सान भी नहीं बचेगा । धर्म अजन्मा है , अगर हम इसे अजन्मा चाहते हैं तो सम्प्रदाय से ऊपर उठने की कोशिश करें । धर्म आत्मा और सम्प्रदाय शरीर है। जो सम्प्रदाय में जीते हैं , वे बाहर ही देखते रह जाते हैं और जो धर्म का आचरण करते हैं ; वे शरीर में रहने वाली आत्मा से मिलाप करते हैं। धार्मिक व्यक्ति ईश्वर और अल्लाह में एक ही सत्ता को निहारेगा , जबकि साम्प्रदायिक इन दोनों के बीच विभाजन- रेखा खींच देता है ।

हम स्वयं को कट्टरता के दायरे से मुक्त करें और बिना कट्टरता के धर्म के मूल स्वरूप को समझें । यदि उत्तेजना से कार्य करेंगे तो धर्म और मानवता के बीच दीवार खड़ी हो जाएगी । वस्तुत: धर्म एक सहज , नैसर्गिक , स्वाभाविक एवं पाकृतिक प्रक्रिया है। धर्म सदा सनातन प्रक्रिया है , जबकि सम्प्रदाय कृत्रिम प्रक्रिया है। धर्म स्थायी स्वरूप है , जबकि सम्प्रदाय किसी व्यक्ति द्वारा सम्प्रादित व्यवस्था है । सम्प्रदाय किसी एक व्यक्ति द्वारा चलाया जाता है , जिसमें अपने कर्मकांड की व्यवस्था होती है। यह कर्मकांड ही धर्म को दूर ले जाता है । परिणामत: धर्म गौण और सम्प्रदाय प्रमुख हो जाता है। अत: धर्म के सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक रूप को समझना अत्यंत आवश्यक है ।

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