गुरुवार, 4 नवंबर 2010

जीवन में सत्य का प्रत्यक्षीकरण श्रद्धा से

जीवन में सत्य का प्रत्यक्षीकरण श्रद्धा से 



क्रोध के वातावरण से मुक्त होने के लिए जीवन और परिवेश के साथ-साथ भावनात्मक समत्व को आत्मसात करने की चेष्टा की आवश्यकता है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से स्थापित किया जाने वाला समत्व -भाव हमारे में भी क्रियान्वित हो जाये तो समतावाद से समाज क्रांति के साथ-साथ जीवन-क्रांति भी हो सकती है।



चाहे कृष्ण की गीता हो या ईसा की बाइबिल , बुद्ध के पिटक हों या महावीर के आगम , स्वामी दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश आदि सभी शास्त्रों का संदेश जीवन में समतावाद की स्थापना करना ही है। जब-जब व्यक्ति की अपेक्षा _ उपेक्षा में में बदलती है , तब क्रोध का वातावरण बनता है


 क्रोध न पनपे , इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी अपेक्षाएं दूसरों के बजाय अपने पास रखे । वह व्यक्ति साधना कि राह पर कदम क्या बढ़ा पायेगा , जो किसी के दो कटु शब्द सुनने का सामर्थ्य भी नहीं रखता है। अगर कोई व्यक्ति हमें बुरा कहता है , तो वह एक अंगुली हमारी ओर और तीन अंगुलियाँ अपनी ओर कर रहा है। इसका अर्थ यह हुवा कि वह व्यक्ति दूसरे को बताते हुवे स्वयं को तीन गुना बुरा सिद्ध कर रहा है।

हम अपने चित्त को एकत्रित करें। उसकी शक्ति जो अनेक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से जुड़ी हुयी है। उस शक्ति को अपने पास जोड़ें । जितनी हमारी क्रियाएं -प्रतिक्रियाएं बढ़ती जाएँगी , चित्त का बिखराव उतना ही होता जायेगा। लोग सदगुरुओं के पास ध्यान करने नहीं , अपितु ध्यान रखने जाते हैं , और वे अमृतवाही गंगा में भी विष खोजने की कोशिश करते हैं । वास्तव में श्रद्धेय वह मानसरोवर है , जिसमें समर्पित ह्रदय डुबकी लगाकर पवित्र होता है।

जीवन में परिवर्तन के लिए अंतर्दृष्टि को बदलना आवश्यक है। मात्र आचरण के बल पर अंतस नहीं बदला जा सकता , किन्तु अंतस के बदलते ही आचरण तत्क्षण बदलना शुरू हो जाता है । चरित्र -शून्य व्यक्ति का विपुल शास्त्र अध्ययन भी व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। अंधे व्यक्ति के आगे लाख दीपक भी बेकार हैं। आँख हो तो पथ-प्रदर्शन के लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। जीवन में सत्य का प्रत्यक्षीकरण श्रद्धा से होता है , विश्वास से नहीं विश्वास गोद लिया हुवा सत्य है। और श्रद्धा जन्म दिया हुवा सत्य है। विश्वास का जन्म तर्क और बुद्धि से होता है , किन्तु श्रद्धा ह्रदय-वीणा की झंकृति है। जब ज्ञान श्रद्धा के माध्यम से आचरण की पहल करता है , तब सम्यक चरित्र का निर्माण करता है

समत्व-वृत्ति से न केवल आपसी वैमनस्य समाप्त होता है , अपितु साक्षी-भाव और द्रष्टा-भाव में स्थित हो जाता है, जहाँ में देह में रहते हुवे भी देहातीत अवस्था प्राप्त हो जाती है। जैसे कीचड़ में रहते हुवे भी कमल कीचड़ से निर्लिप्त रहता है, वैसे ही साक्षी-भाव में जीने वाला साधक संसार में रहते हुवे भी दुखों की परम्परा से लिप्त नहीं रहता। भारत वैराग्य-प्रधान रहा है , किन्तु जिस तरह से हम लोगों में स्वार्थपरता बढ़ रही है , उससे पारस्परिक सहयोग और प्रेम -प्रधान भारतीय संस्कृति को निरंतर आघात पहुंचा है।

आवश्यकता पड़ने पर जब अपने ही लोग अपने काम नहीं आते ओरों से अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है। सम्बन्धी लोग तो हमारी किसी भी बात को बनता देख बीच में बाधा ही डालते हैं । ' दोस्तों के इस कदर सदमे उठाये जाने पर , दिल से दुश्मन के शिकायत का गिला जाता रहा। '

हमें जीवन-शुद्धि एवं समाज-शुद्धि पर बल देना चाहिए । मनुष्य के भीतर विकृतियाँ भरी पड़ी हैं । अपनी विकृतियों को निष्कासित कर देना ही जीवन में धर्म का आचरण है मनुष्य द्वारा की गयी गलतियों को स्वयं मनुष्य को ही सुधारना होगा। परमात्मा की प्रार्थना हमारी गलतियों को सुधारने या दोषों को माफ़ करने के लिए नहीं , वरण संघर्ष-काल में नैतिक और आत्म-बल को बनाने के लिए है।

जब तक व्यक्ति जीवन-मूल्यों को स्वीकार नहीं कर पाता है , तब तक ध्यान और योग के लिए पराक्रम नहीं कर सकता । मृत्यु के पूर्व भी प्रवाह था, मृत्यु के बाद भी प्रवाह होगा और जीवन भी एक प्रवाह है। प्रवाह से अलग होकर तट पर पहुंचने का नाम ही समाधि है। ध्यान के लिए संकल्प आवश्यक है । संशयशील व्यक्ति साधना के मार्ग में आने वाली ठोकरों से विचलित हो जायेगा और जिस मंजिल को पाने के लिए उसने कदम बढ़ाए हैं , उसे धोखा मान बैठेगा । आत्मा ही आत्मा के प्रति संशय कर रही है। जब तक व्यक्ति विश्वस्त नहीं होगा कि भीतर आत्मा है , ऊर्जा है ; तब तक वह स्वयं को एक बिंदु पर केन्द्रित नहीं कर पायेगा।

वह व्यक्ति स्वयं सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ? जो स्व का भी ज्ञाता नहीं है। भगवान महावीर के अनुसार _ जिसने आत्मा को जान लिया है , उसने परमात्मा को जान लिया है भगवत्ता की पहचान भक्त ही कर सकता है। हम सत्य को बाहर तलाशते हैं। जबकि ध्यान सत्य को भीतर खोजने की प्रक्रिया है। घर में सूंई खो गयी है वहां अँधेरा है , बाहर प्रकाश है । भीतर प्रकाश हो या अँधेरा , सूंई तो वहीँ मिलेगी जहाँ खोयी है। आत्मा की पहचान मात्र बाह्य आचरण से नहीं , अपितु अंतर -शुद्धि से ही संभावित है।$$$$$$$$$$$$$$$$$



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