गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मुखौटे नहीं , अपितु आचरण

मुखौटे नहीं , अपितु आचरण 



चरित्र की मृत्यु स्वयं आत्म-हनन की स्थिति है। चरित्र को किताबों की शोभा मात्र मानकर जीने वाला व्यक्ति वास्तव में चलता-फिरता शव है। चरित्र की उपेक्षा हकीकत में धर्म की अवहेलना है। और धर्म की अवहेलना स्वयं के व्यक्तित्व को चुनौती है।


कर्त्तव्य चाहे गृहस्थ का हो या संन्यासी का ज्ञान और आचरण की एकरूपता , पवित्रता एवं सम्यकता अनिवार्य है। बाहर कुछ और भीतर कुछ की उक्ति चरितार्थ करने वाले धार्मिक और नैतिक नहीं हो सकते । हमारा व्यक्तित्व प्रभावी होना चाहिए , मुखौटे नहीं , मुखोटे सत्य नहीं होते । इससे तो व्यक्ति दोमुहां मानव बन कर रह जाता है । पाखंड इसी का नाम है । धर्म तो सम्यक दृष्टि में है , साथ ही धर्म सद्ज्ञान और सच्चरित्रता में है ।


संसार में न ज्ञानियों की कमी है , न क्रिया-कर्मियों की। भाग्य की दरिद्रता यही है कि जिनके पास ज्ञान है , उनके पास क्रिया नहीं है । जिनके पास क्रिया है , उनके पास ज्ञान नहीं है । जीवन दृष्टि का उद्घाटन तो तब ही कहा जायेगा , जब प्राप्त ज्ञान की अभिव्यक्ति आचरण बनेगा ।**************************************


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें