आत्मा को सुंदर बनाओ ;प्रकृति सुंदर आत्मा सुंदर पर मानव सुन्दरतम
यह सत्य है कि शरीर मरण धर्मा, क्षण-प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा है। जिस प्रकार बर्फ प्रतिक्षण पिघलता जाता है; उसी प्रकार शरीर भी ऐसे ही प्रतिक्षण गलता, सड़ता व मरता जाता है। ऐसे नाशवान शरीर का श्रृंगार नहीं अपितु शरीर के माध्यम से आत्मा का श्रृंगार हो। हमें ऐसा ही पुरुषार्थ करना चाहिए।
यह सत्य है कि शरीर मरण धर्मा, क्षण-प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा है। जिस प्रकार बर्फ प्रतिक्षण पिघलता जाता है; उसी प्रकार शरीर भी ऐसे ही प्रतिक्षण गलता, सड़ता व मरता जाता है। ऐसे नाशवान शरीर का श्रृंगार नहीं अपितु शरीर के माध्यम से आत्मा का श्रृंगार हो। हमें ऐसा ही पुरुषार्थ करना चाहिए।
हम दुर्लभ नर-देह प्राप्त करके यदि इसका उपयोग काम-भोग में करते हैं तो यह समझना चाहिए कि हम स्वर्ण-थाल को पाकर उससे हम धूल उठा रहे हैं। अमृत को पाकर पैर धो रहे हैं। कल्प-वृक्ष को उखाड़कर धतूरे के पौधे को बो रहे हैं। चिंतामणि रत्न को फेंककर कांच के टुकड़े बटोर रहे हैं।
जिस भारत में आज हम रह रहे हैं, वह भारत नाम राजा भरत के नाम से ही पड़ा है। चक्रवर्ती राजा भरत के पास बहु-मंजिला अत्यंत सुंदर और भव्य महल था; पर उस महल से राजा का मन संतुष्ट नहीं था और सदा अतृप्ति का भाव ही बना रहता। उन्होंने मन में विचार किया कि क्यों न एक शीश-महल बनवाया जाए। शीश-महल बनवाने का आदेश दे दिया गया। आदेश मिलते ही कार्य प्रारम्भ हो गया और कुछ समय के बाद एक सुंदर शीश-महल बनकर तैयार हो गया।
नया शीश-महल बनने के उपरांत राजा भरत उसका निरीक्षण करने गये। कांच के महल में राजा के समस्त आभूषण प्रतिबिम्बित हो रहे थे। अचानक उनकी अपने हाथ की तरफ गयी। उन्होंने देखा कि हाथ में अंगूठा न होने के कारण वह हाथ शोभाहीन दिखाई दे रहा है। प्रतिबिम्बित होने के कारण हाथ की असुन्दरता शतगुण होकर विविध रूप में दिखाई देने लगी। तब उन्होंने अपने सिर का मुकुट उतारा और अपना चेहरा दर्पण में देखा तो उन्हें चेहरा भी असुंदर दिखने लगा।
राजा भरत अपने असुन्दर रूप को देखकर मन ही मन विचार करने लगे _ ' अरे, मैं भी कैसा मूर्ख हूँ ; रत्नों की शोभा को अपनी शोभा मान रहा हूँ। कहाँ यह नाशवान रत्न-मुकुट और शरीर एवं कहाँ मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा। नहीं ,नहीं ...... अब मैं शरीर की शोभा नहीं बढ़ाऊँगा। ' तथा उन्होंने उसी क्षण अपने समस्त वैभव का त्याग कर दिया। और उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। अत: हमें शरीर के सौन्दर्य पर ध्यान न देकर आत्मा के सौन्दर्य पर ध्यान देना चाहिए। आत्मा के सौन्दर्य से ही आत्म-कल्याण संभव है।==
========
========
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें