बुधवार, 3 नवंबर 2010

मूंड मुंडाए भये संन्यासी

मूंड मुंडाए भये संन्यासी 



अध्यात्म को आत्मसात करने के लिए संसार से पलायन करने की स्थिति के स्थान पर संसारिकता से निर्लिप्त होना चाहिए। अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुवे कमलवत निर्लिप्त जीवन जीना ही अध्यात्म का व्यावहारिक रूप है। जन्म और मृत्यु प्राय: एकाकी होते हैं। हर व्यक्ति अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन-संसार है। नदी का एक तट जन्म है और दूसरा तट मृत्यु। जीवन बीच का बहाव है। इसी बहाव में व्यक्ति कुछ जीवों को मित्र बना लेता है और कुछ को शत्रु। इस बहाव में बहना संसार है और तैरना संन्यास।


राग और द्वेष दो ऐसे तत्त्व हैं जो संसार और संन्यास का बंटवारा करते हैं। राग और द्वेष संसार है और वीतरागता संन्यास। संसार बेहोशी का विस्तार है और संन्यास जाग्रति का। यह खेद का विषय है कि आज संन्यास का भी आधुनिकीकरण हो रहा है। संन्यास में भी संसार की घुस-पैठ हो रही है।


संन्यास का सम्बन्ध मात्र वेश-परिवर्तन से नहीं है, उसका सम्बन्ध तो जीवन-परिवर्तन की क्रांति से है। बाह्य-परिवर्तन तो सरल है। एक चोले को उतार कर दूसरा चोला धारण करना बाहर का संसार बदलना है, जबकि संन्यास भीतर में बसे संसार से वैराग्य पाना है। अगर संन्यास में भी राग-द्वेष के कांटे गड़े हैं , कषाय और वासनाएं उभर रही हैं , तो संसार और संन्यास में कोई भेद रेखा नहीं रहेगी।&&&&&&&&&&&&&&&&&



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