मंगलवार, 2 नवंबर 2010

घटि -घटि राम हैं दुनिया देखे नाहिं

घटि -घटि राम हैं दुनिया देखे नाहिं 




परमात्मा कहीं और नहीं स्वयं हमारे ह्रदय में है। हम परमात्मा की इकाई हैं। वह विराट है , तो हम बूंद हैं। परमात्व-तत्त्व को वही प्राप्त कर सकता है , जिसने बूंद में सागर को पहचान लिया है। अन्तर्हृदय में विराजमान परमात्मा को बाहर खोजना ठीक वैसे ही है , जैसे घर में खोयी हुयी सूईं को सडक पर आकर खोजना। परमात्मा की खोज व्यक्ति के जीवन में आवश्यक है, पर मात्र पढ़कर या सुनकर की गयी खोज अर्थहीन है। खोज प्यास से होती है, बुद्धि के निर्णय से नहीं। बिना प्यास के न तो पानी की सही खोज की जा सकती है और न ही उसके मिलने पर सही उपयोग।


गुरु प्यास का बोध करा सकता है। वह न तो व्यक्ति को प्यासा बना सकता है और न ही पानी उपलब्ध करा सकता है। वह व्यक्ति भला मन्दिर में भी परमात्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है, जो हाथ जोड़े है; उसके सामने प्यास है और अधिक पैसे एवं परिवार की। यदि जीवन को गौर से देखें , उसके एक-एक घटना-क्रम को जांचने की कोशिश करें तो भीतर प्यास अपने आप जगेगी और बुझेगी। बाहर की खोज व्यर्थ हो उससे पहले ही अंतर्जगत में परमात्मा को खोजने की कोशिश करना। निकटतम मार्ग से परमात्मा के द्वार पर पहुंचना है। वह व्यक्ति की मूढ़ता है कि वह भीतर की खोज तब प्रारम्भ करता है जब बाहर खोजते-खोजते थक जाता है। काश, ऊर्जा एवं शक्ति क्षीण हो उससे पूर्व ही ह्रदय-सागर में परमात्मा को खोजा जाता।


वे गलत राह पर हैं , जो परमात्मा को पाने के नाम पर पशु-पक्षियों कि बलि चढ़ाते हैं। स्वयं को बचाकर दूसरों की बलि देने वाला व्यक्ति भला परमात्मा का प्यारा कैसे हो सकता है। परमात्मा को पाने के लिए बलि की आवश्यकता है और ही नारियल और सिंदूर की। परमात्मा को चाहिए केवल समर्पित ह्रदय। गंगा-स्नान से स्वयं को पवित्र मानने वालों को चाहिए कि वे अपनी भावनाओं को भी पवित्र करें अन्यथा शरीर की धूल तो साफ़ हो जाएगी लेकिन आत्मा की निर्मलता पर प्रश्न चिह्न लगा रहेगा।

वे लोग परमात्मा से कैसे हाथ मिला सकते हैं, जो दस मिनट तो प्रभु-स्मरण करते हैं और दिन भर दुनियादारी। परमात्म-साक्षात्कार वहां होता है जहाँ साँस की तरह जीवन की हर धड़कन से जुड़ जाता है। मात्र क्रिया-कर्म से ही आचरण और परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता। भावनात्मक विशुद्धि न हो , परमात्मा का स्वभाव व्यक्ति में अवतरित न हो तब तक बाह्य-क्रिया कांड केवल बाहर तक सीमित रहेंगे। आत्मा या परमात्मा तक उनकी पहुंच नहीं होगी। परमात्मा को हासिल करने के लिए छुटपुट समर्पण या प्यास काम नहीं आ सकती। जैसे नदी सर्वतोभावेन सागर से मिलती है और सागर बन जाती है, वैसे ही जिस दिन सम्पूर्ण समर्पण भाव से व्यक्ति परमात्मा में मिल जायेगा उसी दिन परमात्मा बन जायेगा

हम स्वयं में गहन इच्छा उत्पन्न करें ऐसी इच्छा जिसमें जीवन भी दांव पर लगाया जा सके। भक्ति के मार्ग में रत्ती भर भी संदेह पर्वतारोही को ठेठ शिखर के करीब से तलहटी पर गिरा सकता है। जिसने मीरा की तरह अपना तन-मन-धन सब कुछ परमात्मा के चरणों में न्यौछावर कर दिया है , वही कृष्णमय हो सकता है। जिस दिन हमारे जीवन में मीरा, सूर और चैतन्य जैसी भक्ति मुखर हो जाएगी। उस दिन हम जो भी कहेंगे वही प्रार्थना होगी , जो करेंगे वह परमात्म-सेवा होगी और जो सुनेंगे वे वेद आदि शास्त्रों कि ही वाणी होगी। फिर भोजन ही भोग बन जायेगा और पानी पीना भी सृष्टि का स्रष्टा में लीन होने का प्रयास होगा। वह परमात्मा जिसे हम पाना चाहते हैं , वह हमारे हर कृत्य में प्रकट होगा।**********************************




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