सोमवार, 1 नवंबर 2010

हम वर्तमान में जीना सीखें।

हम वर्तमान में जीना सीखें।




व्यक्ति समाज का साधन नहीं , अपितु साध्य है। समाज-सुधार के लिए आवश्यक है कि प्रति-व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन किया जाए। इस देश में जब भी कभी किसी महापुरुष ने सामाजिक बुराई का विरोध किया , तब-तब पंथवाद महत्त्वपूर्ण हुवा और सुधारवाद गौण रहा। मानसिक रूप से मानवजाति टूटती गयी। मनुष्य ईर्ष्या-ग्रस्त हो गया , खंड-खण्डों में बंट गया और लोभ तथा कामुकता के शिकंजे में जकड़ता चला गया। समाज को सुधारने से पूर्व हम व्यक्ति में व्याप्त समस्याओं की जड़ तलाश करें।

समस्याओं की जड़ व्यक्ति का मस्तिष्क है; क्योंकि वर्तमान में व्यक्ति का विकास मनोवैज्ञानिक कम और आधुनिकता के नाम पर अधिक होता है। इसलिए वह अपनी मूलभूत आवश्यकता और आकांक्षाओं को पहचान नहीं पाता है। परिणामस्वरूप मनुष्य मनोविकारों को दूर करने के चक्कर में अपने आपसे दूर खिसकता जा रहा है। व्यक्ति की मनोकांक्षायें , लालसा और वासनाएँ समय-समय पर परिवर्तित होकर उसे लुभाती जा रही हैं कि व्यक्ति वासनाओं का दास बनता जा रहा है।

द्वंद्व और निराशा तथा पाखंड और कामुकता इन सभी बातों का जनक हमारा मन है। इसलिए इससे छुटकारा पाने के लिए मन को गहराई से समझना आवश्यक है। मन को समझने और उससे हटकर हृदय-परिवर्तन करने के लिए मन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को साक्षी -भाव से देखना पड़ेगा। इस प्रक्रिया में यथार्थ की पूर्ण समग्रता का अनुभव होगा और विचार, स्मृति तथा काल का मन से समापन हो जायेगा।


साक्षी-भाव में सबसे बड़ी बाधा संस्कार डालते हैं, क्योंकि व्यक्ति रूढ़ परम्पराओं व अन्धविश्वास को बेहोशी को दूर नहीं कर पाता और आदतन वे सारे कार्य करता रहता है, जिनकी वर्तमान में कोई उपयोगिता नहीं है। द्वंद्व-मुक्ति के लिए विचार-शुद्धि भी आवश्यक है। आज विश्व के विचारों से वैज्ञानिक उन्नति तो हुयी है , लेकिन मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में हम भटकते जा रहे हैं। अहं, लालच, काम और ईर्ष्या विचारों की सहायता से विकराल रूप धारण करते जा रहे हैं।

चेतना से साक्षात्कार करने के लिए हमें अपनी ऊर्जा को हानि और विभाजन से रोकना चाहिए। चेतना से साक्षात्कार वही कर सकता है , जो वर्तमान में जीता है। स्मृति अतीत की ओर ले जाती है और आकांक्षाएं भविष्य की ओर। साधना न अत्तित से जुड़ी है न भविष्य से , वह वर्तमान से जुड़ी है। हम अतीत के मरघट से मुक्त हों ओर भविष्य के सपनों का सौदागर न बनें। मन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को साक्षी-भाव में बदलने के लिए आवश्यक है कि हम वर्तमान में जीना सीखें। वर्तमान में जीकर ही मनुष्य हर समस्या का सामना कर सकता है..&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&




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