अंधे आँख होते भी
रूप को देखने के लिए चक्षु की आवश्यकता होती है ; चक्षु के माध्यम से विविध रूप और रंग को देखते हैं। सप्तरंगी इन्द्रधनुष को देखते हैं , पर वास्तव में रंग पांच होते हैं। शेष रंग इन्हीं रंगों के मिश्रण से बनते हैं। मूलत: रंग पांच ही होते हैं , ये हैं _ काला , पीला , लाल , सफेद और नीला। चक्षु इन्द्रिय से रूप-रंग देखना कोई बुरी बात नहीं है , पर रूप-रंग में आसक्त होना बहुत बुरी बात है। क्योंकि आँखों के माध्यम से ही सबसे ज्यादा पाप होता है।
रूप को देखने के लिए चक्षु की आवश्यकता होती है ; चक्षु के माध्यम से विविध रूप और रंग को देखते हैं। सप्तरंगी इन्द्रधनुष को देखते हैं , पर वास्तव में रंग पांच होते हैं। शेष रंग इन्हीं रंगों के मिश्रण से बनते हैं। मूलत: रंग पांच ही होते हैं , ये हैं _ काला , पीला , लाल , सफेद और नीला। चक्षु इन्द्रिय से रूप-रंग देखना कोई बुरी बात नहीं है , पर रूप-रंग में आसक्त होना बहुत बुरी बात है। क्योंकि आँखों के माध्यम से ही सबसे ज्यादा पाप होता है।
भतृमित्र नाम का एक धनपति था। उसकी पत्नी का नाम देवदत्ता था। धनपति अपने अनेक मित्रों के साथ वसंतोत्सव के लिए वन में गया। वन में पहुंचने के उपरांत उसने देखा कि वसंतसेन नाम उसका मित्र एक बाण से निशाना साध कर आम्रमंजरी को तोडकर अपनी पत्नी को कर्ण- आभूषण पहना रहा है। उसे देखकर उसकी पत्नी देवदत्ता ने अपने पति से कहा _ ' हे प्राणनाथ ! आप भी बाण द्वारा आम्र-मंजरी को तोड़कर मुझे दीजिये। ' भतृमित्र को बाण-विद्या नहीं आती थी। अत: वह अपनी पत्नी को आम्र-मंजरी नहीं दे सका। इस पर उसे बहुत लज्जा आई। भतृमित्र ने अपने मन में संकल्प किया कि मुझे किसी भी प्रकार से बाण-विद्या अवश्य ही सीखनी चाहिए।
सत्य ही कहा है _ धुन का पक्का , कर्त्तव्य करने में जुटे रहने का अभ्यस्त , मधुरभाषी , प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाला , मेल-जोल बनाये रखने वाला , पशंसा करने वाला , पीठ-पीछे किसी की भी निंदा न करने वाला , नम्रता पूर्वक हंसकर स्वागत करने वाला , दान देने वाला , कटु-वचन सुनकर उत्तेजित न होने वाला तथा दृढ़ संकल्प करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में शीघ्र ही सफल हो जाता है।
दृढ़-संकल्पी भतृमित्र ने मेघपुर नगर के धनुर्विद्या विशारद पंडित के पास जाकर उसे बहुत धन-धान्य देकर , उनकी सेवा करके बाण-विद्या सीखना प्रारम्भ कर दिया और कुछ समय के उपरांत धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली। फिर उस नगर के राजा की पुत्री मेघमाला को प्रण में जीत कर उसके साथ विवाह कर लिया , तथा दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। बहुत समय व्यतीत होने के बाद घर से समाचार आने के कारण भतृमित्र राजा से विदा लेकर घर की ओर चल दिया। राजसी ठाठ -बाट के साथ रथ पर सवार होकर वह मेघमाला के साथ भाद्दिल नगर की ओर जा रहा था कि रास्ते में उसे एक भीलों का बहुत बड़ा समूह मिल गया। वे भील आने-जाने वाले पथिकों को लूटते तथा अपने जीवन का निर्वाह करते थे।
उन भीलों के सरदार का नाम सुवेग था। सुवेग मेघमाला के सुंदर रूप को देख कर मोहित हो गया। वह चोरी के साथ-साथ लूट में सुंदर स्त्रियों का भी अपहरण भी कर लेता था। वह मेघमाला के रूप-लावण्य पर मोहित होकर भतृमित्र से युद्ध करने लगा। मेघमाला सुवेग का मन युद्ध से विचलित करने के लिए उसकी ओर जाने लगी। चक्षु-इन्द्रिय का दीवाना सुवेग युद्ध करना भूल गया। और मेघमाला का रूप-लावण्य देखने लगा। इतने में भतृमित्र ने बाण मारा और उसके दोनों नेत्र नष्ट कर दिए। सुवेग घायल होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया।
एकबार आँख का दुरूपयोग करने के कारण सुवेग जैसा बलशाली भील भी मरण को प्राप्त हुवा। सीता ने एकबार स्वर्ण-मृग को देखकर और उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ा था। कीचक ने बुरी निगाह से द्रौपदी को देखा तो उसे भी मृत्यु को प्राप्त करना पड़ा। पतंगा चक्षु इन्द्रिय की दासता के कारण दीपक पर न्यौछावर हो जाता है और मरण को प्राप्त होता है। हम भी अपनी आँखों तृप्ति के लिए विभिन्न दुष्प्रयास करते रहते हैं और पापों के बंध में फंसते चले जाते हैं। अत: हमें सम्यक दृष्टि का ही निर्वाह करना चाहिए।************************************
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